पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४८९

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४७० l- . म्या. . .। . . . . . .. Ham + 1 ...44 - 9 - + .......................... दियो तन, ल्यायो यों फिराई वहे बात जू जनाइये । साँचो भाव जानि प्रान पाये सो बखान कियो “करो भक्त सेवा” करी वर्ष लों दिखाइयें ।। २५८ ॥ (३७१) ___वात्तिक तिलक । एक शिष्य बड़े ही गुरुनिष्ठ थे यहाँ तक कि श्रीगुरु भगवान को सन्त और भगवन्त से भी बढ़के मानते जानते, पर श्रीगुरु महाराज साधुओं को पूज्य इष्ट समझते थे, अतः श्रीगुरुजी के चित्त में यह चिन्ता रहती थी कि शिष्य को कैसे समझाऊँ जिसमें “मोते अधिक सन्त कहँ जाने।" नित्यही श्रीगुरुजी इसी सोच विचार में रहा करते, पर कुछ कहते न थे। एक दिन जब शिष्यजी रामत को जाने लगे तो श्रीगुरु ने श्राज्ञा की कि “लौटकर पायो तो कुछ कहूँगा।" जब फिर पाए तो देखा कि गुरु-मृत-शरीर को दग्ध करने को लोग ले जा रहे हैं, तब सबको सपथ दे दिलाकर शव को फेर लाकर श्रीगुरुशरीर के आगे कर जोड़कर खड़े हो विनय किया कि "जो बात कहने की आज्ञा हुई थी सो कही जावै ॥" सच्चा भाव जानकर श्रीसकार ने इनको पुनर्जीवित कर दिया, आपने 'साधुसेवा' बताई, वरंच शिष्य की प्रार्थना से एक वर्ष पर्यन्त कर दिखाई। (७३) श्री ६ रैदासजी महाराज। (३१७) छप्पय । (५२६) संदेह ग्रंथि खंडन निपुन,बानि बिमल “रैदास" की। सदाचार श्रुति शास्त्र बचन अबिरुद्ध उचायो। नीर खीर बिबरन परम हंसनि उर धाखो ॥ भगवत कृपा प्रसाद परमगति इति तन. पाई । राजसिंहासन बैठि ज्ञाति परतीति दिखाई ॥ वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहि जासु की। संदेह ग्रंथि खंडन निपुन, बानि बिमल "रैदास" की ॥५६॥ (१५५)