पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४९३

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४७४ श्रीभक्तमाल सटीक । माँ बाप के पास बहुत अन्न धन था, परन्तु उसमें से एक कनका एक कोड़ी भी उन खोगों ने भाप को नहीं दी, आपकी नई धर्मपत्नी मोर ग्राप विना बाया के ही, ठाकुरजी की झोपड़ी के पास बड़े ही आनन्द से रहा करते । हत्या नहीं करके मोल चमड़ा लाके उसकी पनही बना बना ले सन्तों के चरणों में देते थे और अपना भजन सेवा गुप्त रखते थे सरकारी कृपा से जो अन्न मिल जाता था वह अतिथि और भूखों को देकर भोग लगाते थे। ( ३२१) टीका | कवित्त । ( ५२२ ) सहे अति कष्ट अंग हिये सुख सील रंग आए हरिप्यारे लियो भक्त भेश धारिक । कियो बहू मान खान पान सो प्रसन्न हैके दीनों कह्यो पारस है राखियो सँभारिक ॥ "मेरे धन राम, कछु पाथर न सरे काम, दाम मैं न चाहों चाहों, डारों तन वारिक ।” रोपी एक सोनों कियो दियो करि कृपा रासो राखो यह छानि माँझ ले हो जु निकारिक ॥ २६२ ॥ (३६७) वात्तिक तिलक । दम्पति शीत इत्यादि से शारीरिक दुःख तो अवश्य सहा करते । थे परन्तु उनके साधुशील अन्तःकरण प्रेम रंग से अत्यन्त सुख मग्न रहते थे। एक दिन एक साधु का वेष बनाय कृपा करके स्वयं श्रीजानकीनाथ आपके पास आये । आपने यथाशक्ति बहुत आदर सत्कार किया सेवा पूजा की श्रीसाधुजीने अति प्रसन्न होकर पारस का टुकड़ा दिया और कहा कि इसको सम्हाल कर रखिये यह पारस है इसके स्पर्श से लोहा . सोना बन जाता है वरंच श्रापकी एक राँपीमें वह पारस खुला कर उसके लोहे को सोना बनाके प्रत्यक्ष देखा भी दिया परन्तु आप बोले "मेरा एक धन केवल श्रीरामजी मात्र ही है, पत्थर को मैं किसी काम का नहीं समझता । हम दोनों व्यक्ति अपने शरीर और इस पत्थर को