पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४९५

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४७६ - + - +- + - +- + + + + + + + + + + + श्रीभक्तमाल सटीक । खिलारी चे, रहे हैं छान-डारि करी, घर पे अँटारी, फेरि बिजन सिखायो है ॥ २६४ ॥ (३६५) चौपाई। "कै माया, कै हरिगुण गाई । दोनों से तो दोनों जाई॥" दो० "व्यास बड़ाई जगत् की, कूकुर की पहिचान । प्रीति किये मुख चाटि है, वैर किहे तनु हान ॥ वार्तिक तिलक । अव श्रीसकार की बात श्री १०८ रैदासजी ने मान ली। एक नए ठाँव में कोठा भारी हरि मन्दिर तथा सन्तनिवास स्थान बनाये, विविध वितान चंदोवा ध्वजा पताका वन्दनवार इत्यादि से साज सजाया, कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, वह श्रीभक्तिमहारानी की पुरी जान पड़ती थी, संसार में श्री १०८ रैदासजी का यश पूरे रूप से फैल गया। श्रीकृपा से नाना प्रकार के भोग राग संगीत होते, और बहुत लोग दरशन को आया करते थे, बड़ी भीड़ लगी रहती थी। "पूजहि तुमहिं सहित परिवारा ॥" ब्राह्मणों को मत्सर रोग हुआ, वे यह सब देख देख डाह से जलने लगे। रामजी तो बड़े खिलाड़ी हैं ही। कहाँ तो परम अकिञ्चन श्रीरदासजी एक झोपड़ी में गुप्त भजन में दिन विता रहे थे, कहाँ स्वयं प्रभु ने धन माया कोठा अटारी दे श्रीहरि महोत्सवादि ठाट और सन्तसेवा की धूमधाम बढ़ा दी और फिर अति अधिक चढ़ते समझ भक्तहित विचार, आपही सकार विनों के हृदय में वैसे प्रेरक हुए। (३२४) टीका । कवित्त । (५१९) प्रीति रसरास सों रैदास हरि सेवत है, घर में दुराय लोक रंज- नादि टारी है। प्रेरि दिये हृदय जाय दिजनि पुकारि करी भरी सभा नृप आगे कह्यो मुखगारी है ।। जनकौं बुलाय समझाय न्याय प्रभु साँपि कीनों जग जस साधु लीला मनु हारी है। जिते प्रतिकूल में तो माने अनुकूल, 'याते संतान प्रभाव मनि कोठरी की तारी है ॥ २६५ ॥ (३६४)