पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४९६

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४७७ HOMM41404...... भक्तिसुधास्वाद तिलक । वात्तिक तिलक । श्री १०८ रैदासजी रसराशि प्रेम अनुराग से श्रीयुगल सार (प्रिया प्रियतम) की सेवा में छके गुप चुप घर में रहते थे लोक को रिमाने से कुछ प्रयोजन नहीं रखते थे, “लोकमान्यता अनल सभ कर तप कानन दाह" भक्तहितकारी कौतुकी खिलारी प्रभु ने ब्राह्मणों के हिय में प्रेरणा की, ब्राह्मण लोगों ने राजा की सभा में जाके पुकारा, श्रीरदासजी को गालियाँ देदे कर यों कहने लगे कि “वह चर्मकार भग- वत् की प्रतिमा तथा सालामजी की पूजा सेवा करता है लोग उसका आदर करते हैं, इस सबका नीच को अधिकार नहीं, वरंच श्लो० "अपूज्याः यत्र पूज्यन्ते पूज्यपूजाव्यतिक्रमात् । त्रयस्तत्र प्रवर्त्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ॥ गजा ने श्रीरदासजी को बुलाके समझाया, न्याय किया (जैसा आगे वर्णन होता है), इनका प्रताप प्रत्यक्ष देख कर इनको ठाकुर की सेवापूजा सौंपदी, विप्र लोग लजित हुए, श्रीरदासजी का यश संसार में छा गया । साधु की लीला प्रभु का मन हरनेवाली है । श्रीहरि का वचनामृत है कि "जो लोग मेरे भक्तों के प्रतिकूल होते हैं मैं उनको अनुकूल मानता हूँ, क्योंकि उनकी प्रतिकूलता साधु-महिमा रूपी मणि वाली कोठरी की ताली होती है। (जैसे हिरण्यकशिपु ने जब श्रीमहादजी को कष्ट दिये तो आपके प्रभाव प्रसिद्ध हुए), अर्थात् दुष्टों के द्वारा सन्तों के माहात्म्य में प्रकाश चौपाई। "जात पांत पूछै नहिं कोइ । हरि को भजै सो हरि को होई॥" (३२५) टीका । कवित्त । (५१८) बसत चितौर माँझ रानी एक झाली नाम, नाम विन कान खाली, आनि शिष्य भई है। संगडुतें विप्रसुनि छिप तन आनि लागी भागी मति नृप भागे भीर सब गई है। वैसेहि सिंहासनपै आयकै. १"खाली"= शून्य ।।