पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५०

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३३ PAHAruni m ated-Intemaal H I-Amrudel MAI भक्तिसुधास्वाद तिलक । जी उठे अत्यन्त सुखी हुए। इस वृक्ष की उन्नति पर तनक चित्त की दृष्टि तो दीजिये कि जिसको प्रथमतः छेरी बकरी की भी महाशंका रहा करती थी वही अब आज (रामकृपा से) ऐसा सुदृड़ हो गया कि ज्ञान वैराग्य यश महत्त्वादिक बड़े बड़े प्रबल हाथी भी इसमें बंधे हुए झूला करते हैं, सत्सङ्ग के प्रभाव को विचारियेगा। चौपाई। "सतसङ्गति मुद मंगल मूला। सोह फल सिधि, सब साधन फुला॥" दो० "तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला एक अंग। तुले न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग ।।" ___ (७) श्रीनाभाजूका वर्णन । कवित्त । (८३६) जाको जो स्वरूप सो अनूप ले दिखाय दियो, कियो यों कवित्त पट मिहीं मध्य लाल है । गुण पै अपार साधु कहैं आंक चारिही में, अर्थ विस्तार कविराज कटसाल है ।। सुनि संत सभा भूमि रही, अलि श्रेणी मानौं, घूमि रही, कहें यह कहा धौं रसाल है । सुने हे अगर अब जाने में अगर सही, चोवा भये नाभा, सो सुगंध भक्त- माल है ॥७॥ (६२२) तिलक। जिस सन्त का जैसा स्वरूप है, श्रीनाभाजी स्वामी ने उसको अपने अनूठे काव्य में वैसा ही अनूप दिखा दिया है और कविताई ऐसी की है कि जिसका अर्थ ऐसा झलकता है कि जैसे बहुत झीने वन के बाहर से उसके भीतर का लालमणि (रत्न) झलकता है। सन्तों के अपार गुणों को श्रीनाभाजी ने थोड़े ही अक्षरों में यों कहा है | कि उनमें अर्थ अनोखे विस्तृत भरे हैं, जैसे बड़े बड़े कविवरों की चमत्कृत रीति होती ही है ॥ सन्तों की सभाएँ इस भक्तमाल काव्य को सुनके । भ्रमर वृन्दों की भाँति मँडराती तथा झूमती रहती हैं, और यह । कहती हैं कि “यह कैसा माश्चर्यरसमय रसाल है ।” मैंने “अगर" जी का नाम सुना तो था परन्तु अब ठीक ठीक जान भी लिया कि