पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५०६

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+ +++ +44 m AMANMO ++ art भक्तिसुधास्वाद तिलक । ४५७ पात्र में से (जिसको लोग मदिरा से भरा अनुमान करते थे) सभा ही में जल ढाल दिया। राजा ने पूछा कि “यह क्या किया ?"श्राप- ने उत्तर दिया कि “श्रीजगन्नाथजी में एक पंडे का पाँव जला चाहता था, इसलिये आग बुझा दी है।" यह आश्चर्यजनक वचन. सुन के राजा ने साड़िनीवाले को पुरुषोत्तमपुरी भेजा लौट आकर उसने कहा कि “सब वार्ता सत्य है।" (३३६) टीका । कवित्त । (५०७) कही राजा रानी सो "जु बात वह साँची भई, आँच लागी हिये अब कहो कहा कीजिये ?" । "चले ही बनत" चले, सीसतृण बोझ भारी, गरे सो कुल्हारी बाँधि, तिया संग भीजियै ॥ निकसे बजार हैक, डारिदई लोकलाज, "कियो मैं अकान छिन छिन तन छीजिये।" दूरते कबीर देखि, है गये अधीर महा, आये उठि आगे कह्यो, डारि मति रीमियै ।। २७६ ॥ (३५३) __ वातिक तिलक । राजा ने रानी से कहा कि "श्रीकवीरजी की वह वात (पंडे के पाँव जलने से बचाने की) तो ठीक ही निकली, बताओ अब क्या करना चाहिये । मैंने महाराज का बड़ा अपमान किया है, इस भय माँच से मेरा जी तप्त है, और, मैंने, नहीं करना सो किया इससे क्षण-क्षण शरीर तेज-बल-हीन हो रहा है। रानी ने कहा कि “चले ही बनत” | रीति अनुसार, लाज तज, गले में कुल्हारी बाँध, माथे पर तृणभार रख, रानी को साथ ले, नंगे पाँव, नगर के मध्य हो, आपके पास चला । श्रीकवीरजी की दृष्टि ज्यों ही दम्पति पर पड़ी, श्राप महा अधीर हो, उठकर, आगे आ कुल्हारी बोझा फिंकवा, रानी राजा का आदरसत्कार कर अमृत वचनों से दम्पति को अपनी प्रसन्नता जनाई और सुखी किया॥ (३३७) टीका । कवित्त । (५०६) देखिकै प्रभाव, फेरि उपज्यो अभाव द्विज आयो पादसाह सों "सिकंदर” सुनाँव है । विमुख समूह संग, माता हूँ मिलाई लई,