पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५०५

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4-9- art4uptang- M सन्न admaar14014HNAHAN- श्रीभक्तमाल सटीक । • वात्तिक तिलक ! उधर तो आएने श्रीकवीरजी हो प्रति व्यक्ति को ढाई ढाई सेर देने का प्रवन्ध किया, और इधर एक ब्राह्मण के रूप से वहाँ पहुँचे जहाँ कबीर जी छुपे और श्रीयुगलसकार के नाम स्मरण तथा रूप के ध्यान में संसार से अचेत बैठे थे, कहा कि “अरे तू कौन है ? यहाँ भूखों क्यों मरता है ? कबीरजी के घर जा, जो जाता है कबीरजी उसको ढाई सेर देते हैं। यह देख ! मैं भी लाया हूँ, सीधा वहीं चला जा, विलम्ब मत कर ॥" आप घर पाए सरि की कृपा देख प्रेमानन्द में प्रति मग्न हुए । __ जब आपके यहाँ बड़ी भीड़ होने लगी, मान बड़ाई बहुत बढ़ी, तो इसको विष सम जान, श्राप नए नए कौतुक करने लगे, एक वेश्या को साथ लेकर बाहर निकले । लोगों ने समझा कि अब यही रंग बदला लोक में सुयश घटा । मला सामान्य लोगों में इतना धैर्य कहाँ ? जो श्रद्धा घट न जाय। आपने तो केवल लोक-रंजन के भय से ऐसा किया। (३३५) टीका ! कवित्त । (५०८) सन्त देखि डरे, सुख भोई असन्तनि के, तब तो विचार मन माँझ और आयो है । बैठी नृप सभा जहाँ गये पे न मान कियो, कियो एक चोज उठि जल ढरकायो है । राजा जिय शोच पखो, कसो कहा? कहो तब "जगन्नाथ पण्डा पाँव जरत बचायो है" । सुनि अचरज भरे नृप ने पटाये नर, ल्याये सुधि कही "अाज साँच ही सुनायो है” ॥ २७५ ॥ (३५४) वात्तिक तिलक । यह देख सन्त लोग तो हरिमाया से डरे, और अमागे निन्दक खल- गण सुखी हुए। तव श्रीकबीरजी महाराज मन में कुछ और विचार ठान राजा की सभा में गए । राजा ने श्रापका कुछ भी पादर सम्मान नहीं किया। आप कहीं बैठ गए, थोड़े ही काल के अनन्तर उठके उस