पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

no...Meaninehemamalenternation... श्रीभक्तमाल सटीक करोड़ों अवगुन और रोग भरे हैं, उससे मुझको कुछ प्रयोजन नहीं, मैं केवल 'श्रीराम' नाम चाहता हूँ, कि जिसको बाठो याम जपा करता हूँ॥" महा राजसभा से भी जीतकर आप स्थान में पहुँचे । सन्त भक्त जिन्हें हरि में प्रतीति थी, अति प्रीति और प्रानन्द से दर्शन और मिलन को आए । जिनको श्रीसीतारामजी में श्रद्धा विश्वास प्रीति प्रतीति है वेई महानुभाव गाए जाने के योग्य हैं। (३४०) टीका । कवित्त । (५०३) होय के खिसाने दिन, निज चारि विपन के मूडनि मुड़ायो भेष सुन्दर बनाये हैं। दूर दूर गांवनि मैं, नावनि को पछि पूछि, नाम लै "कबीर जू" को झूठै न्योति आये हैं ॥ आये सब साधु सुनि एतो दूरि गये कहूँ चहूँ दिसि सन्तनि के फिर हरि धाये हैं। इनहीं को रूप धरि न्यारी न्यारी ठौर बैठे एऊ मिलि गये नीके पोषि के रिझाये हैं ॥२८०॥ (३४९) ___ वात्तिक तिलक। ब्राह्मणों को मत्सर ने पुनः घेरा, कई कई जनों को माथ मुड़वा वैरागी के सुन्दर भेष धारण करखा, चारों ओर भेजा, जो अनेक गाँवों में जा जाकर झूठमूठ श्रीकबीरजी की ओर से न्यवता दे दे पाए कि अमुक दिन भण्डारा है।" उसी दिन चारों ओर से बृन्दके वृन्द साधु पहुँचे । वार्ता जानकर श्रीकवीरजी कहीं जा छुपे॥ श्रीसकरि कबीरजी के वेष में अपार सामग्री सहित पहुँच, अनेक रूप से सन्तों का भादर सत्कार कर आसन दिला, ऐसा भण्डारा दिया, कि जो केवल लक्ष्मीनाथ से ही बन सकता है । सब सन्तों को अत्यन्त रिझालिया। श्रीयुगल सर्कार की जय ॥ ... (३४१) टीका । कवित्त । (५०२) 'आई अपरा, छरिबे के लिये, बेष किये, हिये देखि गाढ़े, फिरि गई, नहीं लागी हैं। चतुर्भुज रूप प्रभु पानि के प्रगट कियो, लियो फल नैननि कौं, बड़ी बड़ भागी हैं ॥ सीस धरै हाथ, "तन साथ