पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५१५

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श्रीभक्तमाल सटीक। A ... ...HAMR.. . . .4444 4 .... .. ...- वात्तिक तिलक । श्रीपीपाजी ने सुना कि भगवान रामानन्दजी महाराज चालीस कृपापात्रों के साथ नगर के निकट आ पहुँचे, शीघ्र राजधानी के बाहर पालकी सहित मा अगुआई की, और अलग अलग साष्टांग दंडवत् कर, पालकी में चढ़ा, धन धान्य लुटाते, श्रीगुरुनारायण की पालकी में अपना कंधा भी लगाए हुए चले । प्रेम से अपने कंधे पर पालकी रक्खे, बड़े धूम धाम से गीत बाजा इत्यादि के साथ, घर में ला पधराया। जिस भाव से श्रीगुरु और संत समाज की सेवा पूजा करने लगे कहते नहीं बनता, नित्य के राग भोग की प्रशंसा किससे की जा सकती है ? स्वामीजी महाराज ने इनकी मचि देख, यात्रा की कि “यदि तुम इसी रीति पर रामकृपा से चले चलो तो राज्य त्यागना और घर में बने रहना दोनों ही बातें तुम्हारे लिये तुल्य ही हैं। श्रीगुरु वचन का हृदय में समझ दौड़कर श्रीचरणारविन्द पर आ गिरे अर्थात् यह चाहा कि “सब छोड़ श्रीगुरुसेवा में बना रहूँ॥" __(३४७) टीका । कवित्त । (४९६) लागी संग रानी दस दोय,कही मानी नहीं, कष्ट को बतावै, डरपाच, मन लावहीं । “कामरीन फारि मधि, मेखला पहिरि लेवो,देवो डारि श्राभरन, जो पै नहीं भावही" ॥ काहू पैं न होय, दियो रोय, भोय भक्ति भाई, छोटी नाम सीता, गरें डारी न लजाबहीं। “यहू दूर डारी, करौ तन को उधारो,” कियो, दया रामानन्द हियो, पीपा न सुहावही ॥२८६॥ (३४३) वात्तिक तिलक । जव पीपाजी की बारह (वा बीस) रानियों ने जाना कि हमारे महाराज, राज और घर सब कुछ छोड़, विरक्त हो, भगवान श्रीरामानन्द- जी के साथ जा रहे हैं, तो वे सबकी सब साथ हुई, और, मार्ग के कष्ट बताने डराने डांटने फटकारने समझाने से भी किसी ने नहीं माना । श्रीपीपाजी ने कमली फाड़ फाड़ कर, सब रानियों

  • "दसदोय" == १०+२-१२ अथवा १०४२-२०