पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५१४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ४९५ 14 Marathi (३४५) टीका । कवित्त । (४९८) किये शिष्य कृपा करी, धरी हरि भक्ति हृदै, कही "अब जावो गृह, सेवा साधु कीजिये। वितये वरस, जब सरस दहल जानि, संत सुख मानि, श्रा घरमधि लीजिये। आगे याज्ञा पाय धाम, कीन्ही अभिराम रीति, प्रीति को न पारावार, चीठी लिखि दीजिये । “हूजिये कृपाल, वही वात प्रतिपाल करौं,” चले युगवीस जनसंग, मतिसझियै ।।२८४॥(३४५) वात्तिक तिलक। भगवान रामानन्दजी ने संस्कारपूर्वक पीपाजी को शिष्य करके आज्ञा की कि "वत्स ! अब तुम गागरोनगढ़ जाओ, और वहीं रह के साधुसेवा करो, जब तुम्हारी साधुसेवा सरस निकलेगी, तब बरस दिन बीते हम स्वयं तुम्हारे घर भागे।"पीपाजी राजधानी में आके साधु- सेवा करने लगे, यहाँ तक की, कि उनकी कीर्ति कौमुदी का प्रकाश दसों दिशाओं में फैल गया, बारह महीने श्रीपीपाजी को सुख से एक एल सरिस जान पड़े, अब श्रीगुरु दर्शन की प्रतीक्षा कर, विरह से विकल हो, पीपाजी ने काशीजी में पाती (पत्रिका) निवेदन की, जिसके सत्य कापण्य और यथार्थ प्रणय से द्रव कर, निज वचन को सँभाल, संतों से पीपाजी की साधुसेवा की प्रशंसा सुन, श्रीसीताराम कृपा से, तीक्ष्ण विराग और तीव्र अनुरागवाले चालीस मूर्ति संतोंको साथ ले, अनन्त श्रीरामानन्दजीने श्रीकाशीजी से गागरोनगढ़ को प्रस्थान किया। (३४६) टीका । कवित्त । (४९७) कवीर रैदास, आदि, दास सब संग लिये, आये पुर पास, पीपा पालकी लै आयो है । करी साष्टांग न्यारीन्यारी विनै साधुन को, धन को लुटाय सो समाज पधरायो है | जैसी कीन्ही सेवा, बहु मेवा, नाना राग भोग, वानी के न जोग, भाग कापै जात गायौ है । जानी भक्ति रीति, “घर रहो, के अतीत होहु, करिकै प्रतीति गुरु पग लगि धायौ हैं ।। २८५ ॥ (३४४) 18 "जुगवीस"-२०१२०-४०.२०४२-४०