पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५१७

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.४९८ श्रीभक्तमाल सटीक ! विष खा गया जिसके भयानक परिणाम से पीपाजी अत्यन्त डरे। परन्तु भगवान् रामानन्द ने श्रीसीतारामकृपा से तत्क्षण ही उस दुर्बुद्धि को जिला दिया, और उन मूखी को फेर दिया, यह मंगल समाज सानन्द शीघ्र पयान कर सुखपूर्वक, विचरता, मार्गवासियों को कृतार्थ करता, श्रीद्वारावती (दारका) पहुँचा । कुछ दिन सुख से साथ रहकर पीपाजी ने श्रीगुरु-सत्संग का आनन्द पास किया । जब समाज वहाँ से काशीजी को चला तो श्राज्ञा माँगकर श्रीपीपाजी दारावती ही में रह गये भगवत्दर्शन की अत्यन्त आकांक्षा से श्रीपीपाजी सीता- सहचरी समेत एक दिन समुद्र में कूद पड़े। दीर्घ-दर्शी स्वामी श्री १०८ रामानन्दजी महाराज, पीपानी के जल में कूदने की परीक्षा तो ले ही चुके थे। (३४९) टीका । कवित्त । (४९४) _ आये धागे लैन आप, दिये हैं पठाय जन, देखि द्वारावती कृष्ण मिले बहुभाय के । महल महल माँझ चहल पहल लखी, रहे दिन सात, सुख सके कोन गाय के ॥ आज्ञा दई जाइये की, जाइनो न चाहैं, दिये पिये वह रूप “देखो मोही को जु जाय कै" "भक्त बुद्धि गये, यह बड़ोई कलंक भयो, मेटौ तम, अंक संक गही अकुलाय कै" ॥२८॥ (३४१) वात्तिक तिलक । जैसे ही दम्पति समुद्र में कूदे, वैसे ही श्रीकृष्ण भगवान के भेजे हुए एक मूर्ति ने इन दोनों को रास्ता दिखाते हुए श्रीमहल तक पहुँचा दिया, जहाँ श्रीरुक्मिणीजी महारानी समेत श्रीकृष्ण भगवान् इनकी अगुवाई के लिये स्वयं आगे आ खड़े थे। श्रीपीपाजी और सीतासहचरीजी ने श्रीद्वारावती का दर्शन करके अद्भुत प्रानन्द तो पाया ही था, किन्तु प्रभु जिस कृपा और भाव से इनसे मिले, और सात दिन तक इन्होंने मंदिर मंदिर में जैसा चहल पहल (परमानन्द) का अनुभव पाया, उस सुख का वर्णन किसी कवि से क्या वरन् शेष-शारदा से भी नहीं हो सकता।