पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५१८

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४९९ + + + + + ++ + + + H i + + ++ भक्तिसुधास्वाद तिलक । प्रभु ने बाहर जाने की आज्ञा दी, यद्यपि साक्षात् दर्शन के सुख को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, तथापि श्रीहरि ने यह समझाया कि “जहाँ रहोगे वहाँ इसी ध्यान में मग्न रहोगे, और यदि तुमको न भेजूं तो लोक में यह कलंक होगा कि भगवत् का भक्त डूब गया । सो तुम्हें इस कलंकरूप अंधकार को मेटना उचित है।" प्राज्ञा सीस पर घर उस छाप को जो भगवत् ने अनुग्रह किया, पीपाजी ने हाथ में ले लिया, और विरह से अत्यंत विकल हुए । श्रीरुक्मिणी दयामयी ने अपना प्रसाद, सारी, महाभाग्यवती सीतासहचरी को अनुग्रह किया, तदनंतर प्रभु समुद्रतट तक पहुँचाने के अर्थ उठ खड़े हुए। (३५०) टीका । कवित्त । (४९३) चले पहुँचायवे को प्रीति के अधीन आप, बिन जल मीन जैसे ऐसे फिरि आये हैं । देखि नई वात, गात सूकेपट, भीजे हिये, लिये पहि- चानि, पानि, पग लपटाये हैं ।। दई लैक छाप पाप जगत के दूर करौं, "ढरों कहूँ और” कहि सीता समुझाये हैं। छठेई मिलान वन मैं पठान भेंट भई, लई छीनि तिया, किया चैन, प्रभु धाये हैं ॥२८६॥ (३४०) वार्तिक तिलक। भगवत् तो प्रेम के अधीन हैं ही, पहुँचाने को चले और पहुँचाकर श्रीभक्तवत्सल महाराज ऐसे फिरे जैसे जल विन मीन, श्रीपीपाजी तथा श्रीसीतासहचरीजी की दशा क्या कही जाय ? जैसे विना प्राण के शरीर की॥ समुद्र के तट पर लोगों ने श्रीपीपाजी और सीतासहवरीजी को बड़े आश्चर्य से देखा, इनके शरीर और वन का एक सूत वा एक रोम भी भीगा नहीं था। सबके सब सूखे ही थे, इनके हृदय भगवत्-प्रेम से भली भाँति भीगे थे। सिंधुतट की भीड़ ने, जिनमें से बहुतों ने इन दोनों को समुद्र में कूदते देखा था, पहिचान लिया, महात्मा लोगों ने • "सूके"-सूखे, भीगे नहीं। "मिलान"-मार्ग माप (Jia mile) ।।