पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५३०

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+++prnandMp4 ...--..Me ............... भक्तिसुधास्वाद तिलक । ......... श्रीपीपाजी को राजा पर दया आई, उसको बोध देने के लिये चले। बाहर ही से नौकरों के द्वारा सुधि जनाई राजा ने नौकर को उत्तर दिया कि "जा के कह दो कि पूजा कर रहा हूँ।" पीपाजी ने कहला भेजा कि "राजा बड़ा भूद है मोची के पास बैठा मोजा बनवा रहा है और पूजा का मिस ।" यह सुन भूपति के कान खड़े हुए, रोमांच हो पाये, डरा। यथार्थ को समझकर उसकी समझ ठिकाने आ गई, क्योंकि उस क्षण उसका मन मोची और जोड़ाके पासही था। दौड़ता हुआ डरता, कांपता, हाथ जोड़े आकर चरणों पर गिर पड़ा। श्रीपीपाजी महाराज ने पूछा कि "गुरु का अनादर और भगवत् पूजा के समय मन दूसरी जगह रखना, यह कौन सी नीति रीति है ?" (३६२) टीका । कवित्त । (४८१) इती घर माँझ घाँझ रानी एक रूपवती, माँगी "वही ल्यावौ वेगि," चल्यो, सोच भारी है। डगमग पाँव धेरै, पीपा सिंह रूप करे, ठादौ देखि डरे, इत आवै आप ख्वोरी है ।। जाय तो विलाय गयो, तिया ढिग सुत नयौ, नयो भूमि पर, "कला जानी न तिहारी है"। प्रगट्यो सरूप निज, खीजि के प्रसंग कह्यौ “कहाँ वह रंग ? शिष्य भयौ लाज टारी हैं"॥३०॥ (३२८) वात्तिक तिलक। टोड़े के राजा सूर्यसेनमल की एक रानी रूपवती और वाँझ थी, श्रीपीपाजी ने आज्ञा की कि "शीघ्र उसको मेरे पास लाओ।" इस अप्रिय आज्ञा को सुन, सोच संकोच से भरा डगमग पाँव रखता हुआ, राजा रनिवास की ओरचला।परन्तुभागे थोड़ी दूरपर एक सिंह बैठा देखा, डरके मारे न धागे जा सकता था, और न पीछे ही पाँव रख सकता था। इतने ही में सिंहरूपी श्रीपीपाजी अंतरधान हो गये, राजा जो उस रानी के पास पहुँचा तो उसके निकट एक नवीन बालक देखा । यह अद्भुत 'लीला देख, साष्टांग दंडवत् कर सूर्यसेन ने प्रार्थना की कि “हे महाराज! भापकी महिमा कला जानी नहीं जाती है।" १ "स्वारी -"-बुराई ।।