पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५२९

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श्रीभक्तमाल सटीक। __वात्तिक तिलक । श्रीमहाराजजी आपको उस वापुरे की दुकान पर उतारके स्वयं बाहर ठहरे । ज्योंही आप उसकी दुकान में उतरीं, उस बनिये के भाग खुले, पहले उसकी दृष्टि श्रीचरणों ही पर पड़ी, और उस प्रभाव से उसकी बुद्धि रामकृपा से निर्मल तथा पवित्र हो गई चरण सूखे देखकर पूछा कि "माता ! आप कैसे आई हैं ?" उत्तर दिया कि “स्वामीजी अपने काँधे पर लाये हैं।"पुनि पूछा कि “महाराजजी कहाँ हैं ?" बोली “जा देखो द्वार पर होंगे।” पनिया दौड़ा गया देखकर चरणों पर गिरा। श्रीपीपाजी ने कहा कि “तुम जाव लन्ना और भय मत करो, क्योंकि तुमने बिना कागद लिखाये ही बहुतसा धन दिया है कि जिसके लिये भाई भाई लड़ मरा करते हैं।" बनिया लान से मरा जाता था कि धरती में धसमरूँ और रोता था। आप दोनों मूर्ति को उस पर दया आई । श्रीपीपाजी ने उसको दीक्षा देकर आवागमन के दुःख से छुड़ा दिया । (३६१) टीका । कवित्त । (४८२) चलत चलत बात नृपति श्रवन परी, भरी सभा विप्र कहैं बड़ी विपरीति है । भूप मन आई यह निपट घटाई होत, भक्ति सरसाई नहीं जानै घटी प्रीति है ॥ चले पीपा बोध दैन, द्वार ही तें सुधि दई, लाई सुनि कहीं प्रावो करौं सेवा रीति है। "बड़ो मूढ राजा मोजा गाँठे बैठयो मोची घर,” सुनि दौरि आयो रहे ठाढ़े कौन नीति है ॥३००॥ (३२६) वात्तिक तिलक । यह बात चलते चलते, भरी सभा में, राजा के कानों तक पहुँच गई। ब्राह्मण चिल्लाने लगे कि “यह बड़ी विपरीत बात है।" अभागे नृपति के मन में भी आई कि "यह बड़ी ही घटाई है।" राजा भक्ति में सरस नहीं रहा, उसकी प्रीति श्रीपीपाजी के चरणारविन्द से हट घट गई। विनों के कहने से अभागे राजा ने ऐसे गुरु संबंध मानने में बड़ी लजा और अपना मान भंग जाना॥