पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- -+- + + + + M H - +- Anand भक्तिसुधास्वाद तिलक । पास पहुँचाय आऊँ ।" इनको श्रीपीपाजी के पास पहुँचाकर फिर निः- काम भक्त हुआ। (३६४) टीका । कवित्त । (४७९) । विषई कुटिल चारि, साधुभेष लियो धारि, कीनी मनोहारि कही "तिया निज दीजिये। करिक सिंगार,सीता कोठे माँझ बैठी जाय, चाहै मग अातुर है, अज | जाहु लीजिये ॥ गये जब द्वार, उठी नाहरी सुफा- खिकों, फार नहीं, बानो जानि, प्राय अति खीजिये। अपनो विचारी हियो, कियो भोग भावना को, मानि साँच, भये शिष्य प्रभु, मति धीजिये ।। ३०३ ॥ (३२६) वात्तिक तिलक । चार विषयी, अभागी, कुटेिल, दुराचारियों ने सन्तों का भेष वना- के श्रीपीपाजी महाराज से विनय किया कि "अपनी स्त्री हमको दीजिये।" आज्ञानुसार श्रीसहचरीजी शृंगारकर.ऊपर कोठे में जा बैठी और आपने इन सबों को अत्यन्त आतुर उनकी बाट जोहते देख वता दिया कि “जाओ उस कोठे पर चले जाओ ले लेमों" जब ये चारों उस कोठे के द्वार पर गये, तो देखा कि एक बाधिन गुर्राती फुफकारती, इनको फाड़ खाने के लिये चली आती है, परन्तु संतभेष देखके, इन वियियों को फाड़ नहीं खाती है। ये सब डरके भागे और श्रीपीपाजी महाराज पर झुमलाने रिसियाने लगे कि "तुमने कपट करके, हम लोगों के प्राण लेने के लिये, कोठे पर वाघिनि रख छोड़ी है।" आपने त्तर दिया कि "जैसा तुम लोगों का कुविचार था उसी भावना के अनुसार ही तो भोग भी मिला चाहे ॥ इतना श्रीमुख वचन सुन, उसमें प्रतीति कर श्रीसहचरीजी में माता का भाव ला, उसी कोठे पर ये चारों शीघ्रतापूर्वक पुनः गये, जाते ही नाता सीतासाहचरीजी ने निजरूप से इन लोगों को दर्शन दे श्रीमहा- जजी के पास भेजा । श्राज्ञानुसार प्राके ये सब श्रीमहाराजजी के चरणों पर पड़के शिष्य हो गये, और सन्त भगवन्त के रंग में इनकी मति परायण हो भीग गई।