पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५३३

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श्रीभक्तमाल सटीका read IMAMA m arnamaAmers.44- 4eratureAawanemi- (३६५) टीका । कवित्त (४७८) गूजरी को धन दियो, पियो दही सन्तनि नै (३) ब्राह्मन को भक्त कियौ (४) देवी दी निकारिक । (५) तेली कों जिवायो (६) भौसि चोरनि पै फेरि ल्यायौ (७) गाड़ी भरि आयो (5) तन पाँच ठौर जारिक ॥ (8) कागद लै कोरो कसो (१०) बनियाँ को सोक हलो (११) भखौ घर त्यागि (१२) डारी इत्याहूँ उतारिक । (१३) राजा को औसेर भई (१४) सन्त को जु विभौ दई (१५) लई चीठी, मानि, गये, श्रीरंग उदारिक ॥३०४ ॥ (३२५) वात्तिक तिलक । १२ एक दिन सन्तों ने श्रीपीपाजी से कहा कि श्रीराघवजी को दही पिलाइये । श्रीसीतारामकृपा से एक ग्वालिनि दही लिये हुए वहीं श्रा पहुँची (यामैं ले दिखाई, यह बात सरसाई, 'आई जाई भक्त मन, सोई पूरी होत है सही।') ग्वालिनि ने दही देके उसका दाम तीन रुपये बताया । आपने आज्ञा की कि "उधार ही छोड़ जा, भाज जो पूजा आएगी, रामकृपा से तूही पाएगी।"ग्वालिनि यह कहके प्रसन्नता- पूर्वक बेठी दधि पीते देखती रही कि “यदि आज और कुछ पूजा न आवे तो यही दही मुझ दासी की ओर से सन्तों को पूजा जानिये।" श्रीपीपाजी को श्रीसीतारामभरोसा तो था ही इसका कहना ही क्या है, ज्यों ही सन्त लोग दही प्रसाद पी पी उठा चाहते थे कि वहीं उसी समय श्रीपीपाजी का एक बड़भागी शिष्य पहुँचा जिसने कुछ स्वर्ण- मुद्राएँ (अशर्फियाँ) और मोतियों की एक माला भेंट की, वह सबका सब श्रीमहाराजजी ने उस बड़भागिनि ग्वालिनि को दे डाला। दो. "तुलसी विखा बाग को, सींचत हूँ कुम्भिलाय । राम भरोसे जो रहे, पर्वत पै हरियाय ॥" वह ग्वालिनि इतना धन लेते डरी, परन्तु श्रीस्वामीजी ने उसका भली भाँति परितोष कर दिया । वह गुजरी अपने घर आके केवल दो चार स्वर्णमुद्रा अपने प्रयोजन के लिये रख, शेष स्वर्ण मुद्रा