पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५५७

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HOM+Ab h ird -14 + श्रीभक्तमाल सटीक । नाम दियो दियौ परिचाय, धाम, काम कोऊ होय जो थे प्रावो कहि गये हैं ॥३१२ ॥ (३१७) वात्तिक तिलक। श्री “तत्वा" जी तथा "जीवा" जी दोनों भाई ब्राह्मण थे। संत वैष्णवों की सेवा का व्रत भले प्रकार धारण किये थे। परंतु मन में एक वार्ता निश्चय किये हुए थे, इससे किसी के शिष्य नहीं हुए थे। वह वाता यह है कि आपने अपने द्वार पर एक सूखे काष्ठ का दूँठ गाड़ दिया था। जो नित्य नवीन संत श्राते वे उनके चरण धोकर चरणा- मृत उसमें डालते थे मन में यह था कि “जिसके पद तीर्थ से इस ढूंठ में हरे २ पत्ते निकल पावें उसी को अपना गुरुदेव जान उसी से मंत्र लेंगे।" कुछ काल में उनके भाग्यवश श्रीकबीरजी आये और उनका चरण धोकर ज्योंही उसमें डाला, उसी क्षण उस ,ठ में हरित शाखा पल्लव हो गये । तब इन दोनों भक्तों की आशा पूर्ण हुई, चरण पकड़ पकड़ के प्रार्थना की कि "हमको मंत्र दीजिये ।" कबीरजी मंत्र नहीं देते थे परंतु बड़ी कठिनता से दोनों भाइयों को महामंत्र श्रीरामनाम दिया, और आपका निवास श्रीकाशीजी में जिस टाले में था सो भले प्रकार से बता दिया कि “कोई कारज पड़े तो हमारे समीप भाना,"क्योंकि श्रीकवीरजी तो त्रिकालज्ञ थे ही, होने वाली बात जानते थे। (३८२) टीका । कवित्त । (४६१) काना कानी भई, दिज जानी जाति गई, पाँति न्यारी करि दई, कोऊ बेटी नहीं लेत है । चल्यो एक काशी, जहाँ बसत कवीर धीर, . जाय कही पीर, जब पूछयों कौन हेत है। दोऊ तुम भाई, करी पाषु मैं सगाई, होय भक्ति सरसाई, न घटाई चित चेत है । प्राय वहै करी, परी ज्ञाति खरभरी, कहै कहा उर धरी, कछू मति हूँ अचेत