पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६

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s muni +- - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक। ................. भाजन को “भक्त” कहते हैं उस अविरल अमल पवित्र सर्वोत्तमोत्तम फलों के रस का नाम "भक्ति" जानिये ॥ (३) "भगवत्" तो सन्तों और भक्तों की प्रीति ही को विचार करता है, प्रेम के भागे अपनी ईशता (ईश्वरत्व) को न्यारे ही छोड़ देता है, जैसे कि गृद्ध, निषाद, शरी, पाण्डवों इत्यादिकन के साथ । ऐसा भगवत्, सो उसकी इस भक्तवत्सलता की जय ॥ (४) ऐसे व्यापक, सच्चिदानन्द, परब्रह्म, सुखराशि, शाङ्गधर, शोभाधाम, परमसमर्थ, "भगवंत" श्रीजानकीवल्लभजी के पद. पंकज की भक्ति जिसके उपदेश तथा कृपादारा भक्तों को प्राप्त होती है, उसको श्री "गुरु" कहते हैं । गुरुताई की रीति तथा सचाई को श्रीकृष्णदास पैहारी (पयोहारी) जी महाराज के रङ्ग भरे चरित्र में सुनना समझना चाहिये ॥ कुछ न लेना और पूरा २ कृतार्थ कर देना ॥ (१) प्रीति जिसको होती है (भक्त), (२) तथा प्रीति (भक्ति), (३) और जिसकी प्रीति होती है (भगवन्त), (४) एवं जिसके दारा भीति होती है, और प्रियतम मिलता है, जो कि भगवत् प्रेम के ही निमित्त पूजा जाता है, (गुरु), ये चारों के चारों ही केवल कहने मात्र को ही चार हैं, नहीं तो ध्रुव करके इन्हें वस्तुतः एक ही जानिये ।। जैसे यदि किसी को अपनी मांखें दर्पण में देखनी हों, तो उस समय विचारिये कि कर्ता वा देखनेवाली तो आँखें ही हैं तथा देखना आंखों ही की क्रिया है, और जिसको (कर्म) आंखें देखती हैं सो भी अपनी आंखें ही हैं, एवं जो आपके देखने के कारण स्वरूप हैं नाम जिन से आप देखते हैं वे भी मांखें ही हैं, और फिर दर्पण बना भी है केवल आंखों ही के लिये, अर्थात् कर्ता कर्म करण सम्प्रदान ये सब कारक अांखें ही हैं । वा सब एक ही तत्त्व हैं। उनमें भेद वा भिन्नता कहां है ? ऐसे ही भक्त, भक्ति, भगवन्त, गुरु ये चारों अभेद हैं ॥ भगवत् की ही विचित्रता है। चारों नामों से भगवत् ही वन्दनीय है वही एक नामी है ॥ चारों की एकता का तात्पर्य यह है कि श्रीभगवत् ही जीवों के