पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५५

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Putrauartuamar a te श्रीभक्तमाल सटीक । समस्त विघ्नों को निशेष नाश करती है, चाहे विघ्न हृदय के भीतर के हों, वा बाहर के ही हों। पाठवें कवित्त तक तो श्रीप्रियादासजी की ही निज भूमिका, मंगलाचरण, और उपक्रमणिका हुई। हाँ, अब आगे, नवें कवित्त से, उनकी "टीका प्रारम्भ होती है । (१०) टीका कवित्त । (३३) हरि गुरु दासनि सों साँचो सोई भक्त सही, गही एक टेक, फेरि उरते न टरी है। भक्ति रस रूप को स्वरूप यहै छवि सार चार हरि नाम लेत मंसुवन झरी है। वही भगवंत संत प्रीति को विचार करे धरै दूरि ईशता हू, पांडुन सो करी है । गुरु गुरुताई की सचाई ले दिखाई जहां गाई श्री पैहारी ज की रीति रंग भरी है ॥६॥ (६२०) तिलक। (१)"भक्त" उनको ममझिय सही कि जिनको "हरि" (भगवत् चरणारविन्द में तथा श्री "गुरु" पदकंज भोर “हरि- दासों" (भागवतों) के पदपंकज में 'सच्चा प्रेम हो, तथा "श्रीहरि, श्रीगुरु और श्रीहरिगुरुदासों” के प्रति जिनका सत्य (निश्चल निष्कपट) बर्ताव होचे, और जो श्रीकृपा से अपनी निज गृहीत निष्ठा के टेक में सदैव अचल रहैं । भक्तिमान जन भक्त कहे जाते हैं अर्थात् जिन भाग्यभाजनों के हृदयकमल में श्री भक्ति महारानी विराजती हैं तिन्ह सज्जनों को भक्त कहते हैं । (श्लोक) वैष्णवो मम देहस्तु तस्मात्पूज्यो महामुने। अन्ययत्नं . परित्यज्य वैष्णवान भज सुव्रत ॥ (२)"भक्ति" जो रमरूपा है उसका सुन्दर बवि मार स्वरूप संघफ्तः यह पहिचान लीजे कि श्रीमीतागम नाम उच्चारण करने के साथ ही भाँखों में से प्रेमाश्रु के बिन्दु टपकने लगें वरंच मांसू की झड़ी बरसने लगे। _ “भक्ति" की कुछ व्याख्या पृष्ठ ३ से ३३ पर्यन्त लिख पाए हैं। "भक्त" क भाव का नाम "भक्ति" है अर्थात् जिस अनूप सम्पत्ति के