पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक ! ढूँढते हूँढ़ते श्रीमाधवदासजी के समीप थाल क्सा पाया, अविवेकी लोगों ने इतना विचार न किया कि “ये जो चुरा लाते तो ऐसा की क्यों रख छोड़ते।" थाल लिया, और आपको बाँध कर बेंत मारे, उन बेतों की चोट सब श्रीजगन्नाथ देवजी ही ने अपने तन पर धारण कर लिया। जब पण्डा लोग प्रभु को तैल लगाने लगे, तब देखें तो पीठ में बेंत के चिह्न ज्यों के त्यों उबटे हैं। सबके सब शंकित हुए । प्रभु ने प्राज्ञा दी कि "जब हमने उनको थाल प्रसाद दिया है तब उन्होंने लिया है। यह सुन सबने श्रीमाधवदासजी के चरणों को गह के अपराध क्षमा कराया, यह सब वार्ता पुरी भर में प्रसिद्ध हो गई। तब आपकी कीर्ति अत्यन्त फैल गई। सब प्रशंसा करने लगे, आप सुनके अति लजित होते थे, क्योंकि साधु का सुभाव ग्रन्थों में ऐसा ही गाया गया है ॥ (३८८) टीका । कवित्त । (४५५) देखत सरूप सुधि तन की विसरि जात, रहि जात मन्दिर में जाने नहीं कोई है। लग्यो सीत गात, सुनो बात, प्रभु काँपि उठे, दई सकलात भानि प्रीति हिये भोई है । लागे जब बेग, वेग जाग परे सिन्धु तीर, चाईं जब नीर, लिये ठाढ़े, देह धोई है। करिके विचार औ निहारि, कही "जानों मैं तो, देत हो अपार दुःख, ईशता लै सोई हैं"॥३१८॥ (३११) वात्तिक तिलक । अब तो आप मन्दिर में, श्रीजगदीशजी का इस प्रकार सप्रेम इकटक दर्शन किया करते थे कि शरीर की सुधि बुद्धि सब भूल जाती थी। प्रभुइच्छा से पण्डा लोग आपको देखते न थे, मन्दिर ही में रहि जाते थे, एक बार जाड़े में आप मन्दिर में उघारे रह गये, शरीर में प्रति शीत लगा, तव शीत से प्रभुजी काँपने लगे। उसी क्षण परडाओं को स्वप्न देकर बुलाया, एक नवीन मोदना मँगा के ओढ़ा, और अपनी प्रसादी श्रीमाधवदासजी को प्रोढ़ाई । आप अोदना प्रसादी पाकर अत्यन्त प्रीति में भर गये।