पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६१

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५४२ ...... .. . ..4 444 ma.HMM . I +++ श्रीभक्तमाल सटीक। (३८६) टीका । कवित्त । (४५७) भए दिन तीन, एतो भूख के अधीन नाहि, रहैं हरिलीन, प्रभु शोच पस्खो भारिये । दियो सैन भोग, श्राप लक्ष्मीज लै पधारी, हाटक की थारी झन झन पाँव धारियै ।बैठे हैं कुटी में पीठ दिये, हिये रूप रंगे बीजुरी सों कौंधि गई नीके न निहारिये । देखी सो प्रसाद, बड़ी मन प्रहलाद भयो, लयो भाग मानि, पात्र धखोई बिचारिये ॥३१६॥ (३१३) वात्तिक तिलक तीन दिवस बीत गये, आप क्षुधा के आधीन नहीं हुए, केवल हरिस्मरण में मन लीन रहा। आपकी दशा देख श्रीजगन्नाथजी को शोच हुआ कि "मेरा भक्त तीन दिन से भूखा पड़ा है" तब जो सुवर्ण की थाली में सयन भोग धरा था, सो प्रसाद (उच्छिष्ट) करके दिशा, स्वयं श्रीलक्ष्मी नूपुरादिकों का शब्द झन झन करती ले आई । आप द्वार की दिशि पीठि दिये, श्रीश्यामसुन्दर के रूप में रंगे हुए, बैठे थे । श्रीलक्ष्मीजी श्रापके समीप प्रसाद रख के चली गई। आपने देखा कि बिजली सी चमकी, परंतु भले प्रकार दर्शन नहीं पाया। श्रीमहाप्रसाद देख कर अति आनंदित हो, अपना बड़ा भाग्य मान, प्रसाद पाकर थाल वहाँ ही रख दिया ॥ (३५७) टीका । कवित्त । (४५६) खोलें जो किवार, थार देखिये न सोच पस्यो, कसो ले जतन हुँदि वाही ठौर पायो है। ल्याये वाँधि मारी वेंत, धारी जगन्नाथ देव, भेव, जब जान्यो, पीठ चिह्न दरसायौ है ॥ कही पुनि श्राप मैं ही दियो, जब लियो याने, माने अपराध पाँव गहि कै छिमायौ हैं । भई यों प्रसिद्ध बात कीरति न माँत कहूँ, सुनि के लजात, साधु सील यह गायौं है ।। ३१७ ॥ (३१२) वात्तिक तिलक । प्रभात में पण्डा लोगों ने जब किवार खोले, तव थार नहीं देखा, सवको बड़ा सोच हुआ । यत्नपूर्वक सबके सब सर्वत्र हूँढ़ने लगे,