पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६४

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५४५ werebruarthrumentarampannamrat Nir a manentramanarthawwant भक्तिसुधास्वाद तिलक ।

प्रभु के दर्शन तथा स्पर्श से बात की बात में देखते देखते ही आपकी

समस्त पीड़ा विला गई। श्रीमाधवदासजी ने श्रीपुरी में विराजे हुए नई नई कथा काव्य-रचना कर श्रीभगवद्भक्ति को अत्यंत विस्तार किया ॥ . (३९०) टीका । कवित्त । (४५३) कीरति अभंग देखि भिक्षा को अरंभ कियो, दियो काह बाई पोता खीमत चलाय के । देवौ गुण लियो नीके जलसों पचाल करि, करी दिव्य बाती, दई दिये मैं बराय के ॥ मंदिर उजारी भयो, हिये का अन्ध्यारो गयो, गयो फेरि देखन कौं, परी पाँय भाय कै । ऐसे हैं दयालु, दुख देत में निहाल करें, करें ले जे सेवा ताको सके कौन गाय के ॥३२०॥ (३०६) वात्तिक तिलक। श्रीमाधवदासजी अपनी अभंग कीर्ति देख भिक्षा माँगने लगे। एक दिवस एक अति कृपण वृद्धा बाई के घर भिक्षा माँगने गये, वह गृह पोत रही थी। आपने दो बार माँगा, अत्यंत क्रोधकर उसने पोतनेवाला वन ही फेंक मारा। आपने कृपालुता से विचार किया कि “इसने कुछ वन दिया तो सही" आपने वस्त्र को ले लिया ॥ प्रद। "सन्तनि की यह रहनि सदा है । गुन में गुन देखें, अचरज क्या ? दोषों में गुन गहनि महा है ।" (श्रीकाष्ठजिह्वा स्वामी ) आपने जल में घो, स्वच्छ कर, उस पोतने की बाती बना श्री- जगन्नाथजी के मन्दिर के दीपकों में लगा बार दिया। जब मन्दिर में उन बत्तियों का प्रकाश हुआ, उसी क्षण उस माई के हृदय का भी अज्ञानकृत अन्धकार जाता रहा । दूसरे दिन श्राप कृपाकर उसके घर फिर भिक्षा माँगने गये। वह देखते ही चरणों पर गिर पड़ी भापकी कृपा से उसको भक्ति उत्पन्न हुई। अपने धनादिकों से सन्तसेवा कर भवपार हो गई।