पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

+ ++ ++ श्रीभक्तमाल सटीक आप ऐसे दयालु थे कि उसने तो मारा दुःख दिया, और आपने उसको कृतकृत्य निहाल कर दिया। दोष में गुण लेना सन्तों ही का काम है । भला ऐसे शुद्ध सन्तों की जो कोई सेवा करै तो उसका फल कौन कह सकता है। (३९१) टीका । कवित्त । (४५२) पण्डित प्रवल दिगविजे करि प्रायौ, आय वचन सुनायौ "जू। विचार मोसों कीजिये।" दई लिखि "हारि, काशी जाय के निहार पत्र, भयौ अति ख्वार, लिखी जीति वाकी, खीजिये । फेरि मिलि माधों जू की वैसे ही हरायो, एक खर को मँगायो कही "चदौ जब धीजिये। वोल्यो "जूती बाँधो कान,"गयो सुनि न्हान, आन जगन्नाथ जीते, से चढ़ायो वाको, रीझिये ॥ ३२ ॥ (३०८) वात्तिक तिलक । एक समय एक बड़ा प्रबल पण्डित, चारों दिशाओं में विजय कर, 'श्रीजगन्नाथपुरी में आया और यहाँ के सब पण्डितों से कहा कि "मुझसे शास्त्रार्थ करो।" पण्डितों ने इसकी मवल पारिडत्य देख कहा कि "तुम श्रीमाधवदासजी को जीत लो तो मानों हम सबको जीति लिया।" उसने श्रीमाधवदासजी से जा कहा कि “मुझसे शास्त्रार्थ कीजिये।" आपने उत्तर दिया कि “हम तुमसे हारे हैं।" पण्डित बोला कि "लिख - दो" आपने अपनी हार लिख दी। श्रीकाशी में श्रावह पत्र पण्डितों को दिखा, स्वयं देखा सो प्रभु की कृपा से पत्र में लिखा था कि "माधवदासजी जीते, दिग्विजयी परिडत हाग।" यह देख पण्डित प्रति क्रोधयुक्त फिर माधवदासजी के पास आके कहने लगा कि “तुमने छल कर अपनी जीत लिख दी थी, अब मुझसे शास्त्रार्थ करो मैं तुमको इराके दोनों कानों में जूतियाँबाँधगदहे पर चढ़ापुरी भर में किराऊँगा।" श्री- माधवदासजी इसके क्रूरवचन सुन बोले कि मैं स्नान कर आऊँतवशास्त्रार्थ करूँ।" ऐसा कहकेचले गये। तदनन्तर श्रीजगन्नाथनी माधवदासजी का