पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६८

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min-H -0InIndia MUMBrita Humanart Muna भक्तिसुधास्वाद तिलक। चरणों में लिपट गये आप सुखपूर्वक मिले, और लौटके भक्त के घर में श्राय बाजे कि “ऐसी भक्ति-युक्त नारी धन्य तथा उसका प्रियपति तू उस महंत ने हाथ जोड़ श्रीमाधवदासजी से विनय किया कि “मैंने आपका अमित अपराध किया, सो कैसे छूटै ?" आपने आज्ञा दी कि "जब तक जियो तब तक वैष्णवों का सीथप्रसाद सेवन करो, अपराध छूटने का यही यत्न जानो, जव वैष्णव भावै तब उनसे मिलि दंडवत् प्रणाम कर, सत्कार करो, यह मेरी कही वार्ता छुपाके भीति से हृदय में घर रखो।" फिर श्रीमाधवदासजी वहाँ से चल, जहाँ सदा वसंत ऋतु सरीखा थानन्द रहता है उस श्रीवृन्दावन में आये॥ (३९५) टीका 1 कवित्त । (४४८) देखि देखि वृन्दावन मन में मगन भये, गये श्रीविहारीजू के चना तहाँ पाये हैं । कहि रह्यो द्वारपाल "नेकु में प्रसाद," लाल यमुना रसाल तट भोग को लगाये हैं।नाना विधि पाक धरै, स्वामी आप ध्यान करें बोले हरि "भावे नाहिं वेई लै खवाये हैं। पूछयो, सो जनायो, हँदि ल्यायो, आगे गायो सब, “तुम तो उदास," हाँ सरस समझाये हैं ॥३२५॥ (३०४) वात्तिक तिलक । श्रीवृन्दावन देख देख आपका मन प्रेमानन्द में मग्न हुआ, फिर "श्रीबांके बिहारीजी के मन्दिर में दर्शन को गये, वहाँ बाहर ही किसी ने चने दिये। द्वारपाल ने कहा "कुछ ही विलंब में आपको प्रसाद भी मिलेगा, थाल गया भोग लग रहा है आपने विचारा कि "क्षुधा की निवृत्ति तो चनों ही से हो जावेगी।" श्रीयमुनातट रसाल वन में आके श्रीगोपाललाल को अर्पण कर चने पाके बैठे रहे । यहाँ विहारीजी के आगे नाना प्रकार के व्यंजन घर मंदिर (स्थान) के महंत स्वामीजी ध्यान करने लगे भावना में विहारीजी बोबे कि "हमको तो एक प्रिय भक्त ने चने भोग लगा दिये,