पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६७

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५४८ - - श्रीभक्तमाल सटीक। सन्त श्राए,” "इहाँ तो समाई नाहि, आई भरवरी है। कीजिये "रसोई" "जोई सिद्ध सोई ल्यावो,” दूध नीके के पिवायो, नाम “माधों पास भरी है ।। ३२३ ॥ (३०६) वात्तिक तिलक । श्राप उस माई के ग्राम से धागे चले । एक दूसरे गाँव में आये. यहाँ एक वैश्य महाजन भक्त था । वह जब प्रथम जगन्नाथपुरी में गया था तो श्रीमाधवदासजी से अपना नाम ग्राम बता प्रार्थना की थी कि “जो श्री- वृन्दावन भाइये तो मुझे दर्शन दीजियेगा" उसके घर में गये, वह कहीं गया था, उसकी खी बड़ी भक्तिवती थी, उसने आपके चरणों में प्रणाम किया उसकी अटारी पर एक वैष्णव महंत थे उसने कहा कि "एक और संत आये हैं," उन्होंने उत्तर दिया कि “यहाँ समाई नहीं हैं"तब वह भक्ता घबड़ाके श्रापसे रसोई करने की प्रार्थना करने लगी । आप वाले "जो सिद्ध पदार्थ हो सो ला" वह वीनी मिलाके दूध लाई । अापने प्रभु को अर्पण कर पान किया अपना नाम “जगन्नाथी माधवदास" बताया कि “मेरा आगमन अपने पति से कह देना ॥" (३९४) टोका । कवित्त । (४४९) गये उठि पाले भक्त प्रायो, सो सुनायौ नाम, सुनि अभिराम, दोरे संगही महंत है। लिये जाय पाय लपटाय, सुख पाय मिले, झिले घर माँझ, “तिया धन्य तो सों कंत है"। संतपति बोले "मैं अनंत अपराध किये ! जिये अब" कही “सेवो सीत मानि · जैते है। आवत मिलाप होय, यही राखौ वात गोय," आये वृन्दावन जहाँ सदाई वसंत है ॥३२४ ॥ (३०५) वात्तिक तिलक। श्रीमाधवदासजी उठके चल दिये । पश्चात् कुछ ही काल में बड़- भागी आया, और आपका नाम सुन प्रति प्रेम से दौड़ा, तथा भाप- का नाम सुन साथ ही वह महंत भी दौड़ा, श्रीमाधवदासजी के १ "संतपति" महन्त । २"जत" यल, उपाय ।