पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक। नित्य आपही पाथ दिया करते थे। पाछे लोग आपको जान चरणों पुनः वहीं से जगन्नाथधाम को चले, मार्ग में आपके गृहस्थाश्रम में निवासवाला ग्राम मिला । आपने विचारा कि “माता को भी देखता चलू।"गृह के समीप लोगों से माता और पुत्र का कुशल सुना, किसी ने दौड़के माता से कहा कि तेरा पुत्र प्राया है। माताजी बोली कि "मेरा पुत्र विरक्त हो करके फिर घर आवै, ऐसा कपूत नहीं है। आप माता के शुभ वचन सुन संकुचित हो शीघ्र ही जोट चले । फिर जिसके यहाँ प्रथम गए थे उस भक्त वैश्य के ग्राम के निकट आये तब उसको स्वम देकर बुलाके, मिलकर, श्रीजगन्नाथधाम में चले आये। इसी भाँति श्रीमाधवजी के अनेक अपार चरित हैं, मैं जितने चरित जानता था, उतने गाके सुना दिये ॥ (८७) श्रीरघुनाथ गुसाई। ( ३९७ ) छप्पय । ( ४४६ ) (श्री) रघुनाथ गुसाई गरुड़ ज्यौं, सिंहपौरि ठाढे रहैं। सीत लगत सकलात विदित पुरुषोत्तम दीनी। सौच गये हरि संग कृत्य सेवक की कीनी। जगन्नाथपद प्रीति निरंतर करत खवासी । भगवतधर्म प्रधान प्रसन्न नीलाचल बासी । उतकल देस उड़ीसा नगर "बैनतेय" सब कोउ कहैं। (श्री) रघुनाथ गुसाई गरुड़ ज्यौं, सिंहपौरि ठाढ़े रहें ॥७१॥ (१४३) बात्तिक तिलक । जिस प्रकार श्रीभगवत् के अग्रभाग में श्रीगरुड़जी खड़े रहते हैं उसी प्रकार श्रीरघुनाथ गुसाईजी श्रीजगन्नाथजी के आगे "सिंहपौरि ख्योदा" पर खड़े रहते थे। एक समय आपको रात्रि में अत्यंत जाड़ा