पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७१

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+ + श्रीभक्तमाल सटीक । लगने पर स्वयं श्रीपुरुषोत्तमजी ने अोढ़ने को दुलाई दी, यह बात प्रसिद्ध है । चौर जव रोग से गुसांईजी को मल गिरने लगा, तब प्रभु ने सेवक की नाई अंग पच्छालन भादि कृत्य किया। श्रीजगन्नाथजी के पदकमल में आपकी अत्यंत प्रीति थी। निरंतर सेवा करते थे। भगवद्धर्म करने करानेवालों में प्रधान प्रसन्नतापूर्वक नीलाचल में वास करते थे। वरन् उड़ीसानगर के तथा उत्कल देश के निवासी सब श्रीरघुनाय गुसाईंजी को "गरुड़जी” ही कहा करते थे। (३९८) टीका ! कवित्त । (४४५) थति अनुगग घर संपति सो रह्यो पागि, ताह कार त्याग कियों नीलाचल बास है। धन को पठाचे पिता ऐ नहीं भाव कछु देखियो सुहाव महाप्रभुजी को पास है ॥ मन्दिर केदार, रूप सुन्दर नि. हासो को लग्यो सीत गात सकलात दई दास है । सौच संग जा- यवे की रीति को प्रमान वह वैसे सब जानो माधोदास सुख- रास है ।। ३२७॥ (३०२) वात्तिक तिलक ! श्रीरघुनाथजी गुसाईजी का घर सर्व सम्पत्ति से भरा था, उसको भी त्याग कर अनुरागपूर्वक "नीलाचल" में आपने निवास किया । आपके पिताजी गृह से धन भेजते थे, परन्तु आपको प्रिय नहीं लगता, केवल महाप्रभुजी का दर्शन तथा समीप रहना मिय लगता था। श्रीजगन्नाथजी के द्वार पर खड़े सुन्दर रूप को देखा करते थे। एक गत जव शरीर में शीत लगा, तब प्रभु ने अपने दास को दुलाई दी, और रोग से शौच जाने पर प्रभु की सेवा करने की रीति, प्रथम जैसी श्रीसुखराशि माधवदासजी की कथा में लिखी है उसी प्रकार जानिये ।। (३९९) टीका । कवित्त । (४४४) महाप्रभु कृष्ण चैतन्य जू की आज्ञा पाइ आये "वृन्दावन," “राधाकुण्ड" वास कियो है । रहनि, कहनि, रूप चहनि, न कहि