पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७३

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श्रीभनतमाप सटीक । उभे महत देही धरी। नित्यानन्द कृष्णचैतन्य की भक्ति दसौदिसि विस्तरी॥७२॥ (१४२) वात्तिक तिलक। श्रीनित्यानंदजी की, तथा "श्रीकृष्णचैतन्य” महाप्रभुजी की भक्ति दशों दिशाओं में विस्तार हुई । गौढ़ (बंगाल) देश का पाखंड मिटा के जीवों को छापने भगवदमनन में परायण किया। दोनों महात्मा करुणा- सिंधु, भनि कृनन ने श्रगिनिन जीवों को गति दी। शापका हृदय दशधा, नाम प्रेमाभक्ति से सदा पूर्ण रहा करता था। श्रापके चरणों की उपासना बड़े बड़े महात्मा लोगों ने की । जो कोई भापका नाम जपते हैं उनके दुरित पाप नाश हो जाते हैं, निष्पाप हो जाते हैं। पूर्व देश की भूमि में श्रीवलदेवजी तथा श्रीकृष्णचन्द्रजी ने अपने अंशों से दोनों महंतों की देह धरकर अवतार लिया, यह बात विख्यात ही हैं॥ (१) श्रीकृष्णचेतन्यजी। (२) श्रीनित्यानन्द प्रभुजी। (४०१) टीका | कवित्त । (४४२) याप बलदेव सदावारुणी सों मत्त रहै, वह मन मानौ प्रेम मत्तताई चाग्विये । सोई नित्यानन्द प्रभु महत की देह धरी, भरी सब पानि तऊ पुनि अभिलाखिये ॥ भयो वोझ भारी, कि हूँ जात न सँभारी, तब और टोर पारपद माँझि धरि राखियै । कहत कहत और सुनत सुनत जाके, भये मतवारे, बहु ग्रंथ ताकी साखियै ॥३२६॥ (३००) (८८) श्रीनित्यानंद प्रभुजू। वार्तिक तिलक। प्रथम द्वापर अवतार में आप श्रीवलदेवजी श्रीकृष्ण भगवान के बड़े भाई (दाऊजी) वारुणी पानकर मत्त रहते थे, फिर आपने मन में चाह किया कि “अब मैं प्रेम की मचता भी चाखू," इसी हेतु से मापने "श्रीनित्यानन्द" महंतजी का शरीर धारण किया । और