पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

konomi+ HI . PPEARi ding .... भक्तिसुधास्वाद तिलक । .......... सम्पूर्ण प्रेममत्तता लेकर अपने हृदय में भर लिया, तथापि और प्रेमाभिलाषा बनी ही रही। आपको उस मादकता का ऐसा भारी बोझा हुआ कि किसी प्रकार समाला नहीं जाता, तब कृपा करके ठौर और अपने शिष्य पार्षदों को थोड़ा थोड़ा दे दिया, जिस प्रेम- माधुरी के कहते कहते तथा सुनते सुनते कितने अनुरागी मतवारे हुए। उनके चरित्रों के, और प्रेम वागविलास के बहुत से ग्रंथ साक्षी हैं ।। (८६)श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभुजू। (४०२) टीका । कवित्त । (४४१) गोपिन के अनुराग श्रागै, आप हारे श्याम, जान्यो यह लाल रंग केसे श्रावै तन मैं । येतो सब गौर तनी नख सिख बनी ठनी, खुल्यो यो सुरंग अंग अंग रंगे वन मैं ॥ श्यामताई माँझ सो ललाई हूँ समाई जोही, ताते मेरे जान फिरि आई यहै मन मैं । “जसुमति सुत” सोई “शची सुत” गौर भये, नये नये नेह चोज नाचे निज गन मैं ॥ ३३० ॥ (२६६) वात्तिक तिलक । श्रीगोपीगणों के अपार प्रेम के आगे श्यामसुन्दर श्रीकृष्णजी हार गये, तब विचार किया कि इस प्रेम का लालरंग मेरे तनु में किस प्रकार श्रावै, ये गोपिका वृन्द गौर तनु युक्त नख शिख श्रृंगार से ललझर बनी ठनी हैं।" उनके तब शोभायुक्त सुरंग अंगों का संग वन में करने से आपकी झलाभल श्यामताई में, गोपिकाओं के अंग की ललाई समा गई, अपने को गौर देखा । इसलिये मुझे जान पड़ता है कि आपके मन में यह बात आई कि "अब मैं गौरांग शरीर धारण करूँ।” सोई श्रीयशोदानंदन कन्हैया अव गौरांग शचीनंदन "श्रीकृष्णचैतन्य" जी हुए। और जैसे प्रथम गोपियों के संग रास में नाचते थे, वैसे ही फिर अब अपने अनुरागियों के बीच में स्नेह के चुटीले पद गान कर नाचते थे, प्रेम की जय !!