पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८५

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श्रीभक्तमाल सटीक। दिया । आकाश में चलने वाली देवी मनुष्य की शिष्य हुई यह अति आश्चर्य की बात है, परन्तु यह बात सब संसार में विदित है, और सत्य वक्ता सन्तजन श्रीहरिव्यासजी की कीर्ति गान करते हैं । आपकी चेली वैष्णवी देवी भी विद्यमान है। आपके साथ में वैराग्य-युक्त तथा श्याम- सुन्दरजी के स्नेही संतों के वृन्द सदा रहते थे। - वे संत नव योगेश्वरों के सरीखे होते थे। उनके मध्य में आप मानों "वैदेही" अर्थात् श्रीविदेहराज विराजमान होते थे। श्रीगुरु (श्रीमहजी) के चरण के रजस्पर्श करने से श्रीहरिव्यासजी को सम्पूर्ण सृष्टि के लोगों ने नमस्कार किया। (४१५) टीका । कवित्त । (४२८) चटथावल गाँव बाग देखि, अनुराग भयो, लयो नित्त नेम करि चाहैं पाक कीजिये । देवी को स्थान, काहू बकरा ले माखो भानि, देखत गलानि "इहाँ पानी नहिं पीजियै”। भूख निसि भई, भक्ति तेज मिड़ गई, नई देह धरि लई प्राय, बखि मति भीजिये । "करी जू रसोई" "कौन करें, कछु और भोई," "सोई मोंकों दीजै दान शिष्य करि बीजिय" ॥३३८॥ (२६१) वात्तिक तिलक । श्री “हरिव्यासजी" सन्तों को साथ लिये विचरते "चटथावल" नाम ग्राम में आए, एक उत्तम वाटिका देख आपका चित्त प्रसन्न हुआ, वहाँ उतरके जप पूजन श्रादिक नित्यनेम कर, सामग्री सवार, आपने रसोई करने का विचार किया । इतने में उसी वाटिका में देवी के स्थान पर किसी ने बकरा मारके देवी को चढ़ाया। यह दुराचार देखकर दयालु सन्तों को अति ग्लानि हुई। निश्चय किया कि “यहाँ प्रसाद की तो बात क्या, जल तक भी नहीं पीना चाहिये ॥” । सब संतों के साथ श्रीहरिव्यासजी भूखे ही रह गये । रात्रि हो गई श्रीहरिभक्तों के अनुताप तेज से देवी पिस गई। तव नवीन देह