पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । बात्तिक तिलक।

श्री “भट्ट" जी (संसार शत्रु को पराजय करने में बड़े सुभट) ने,

. रसिकों के मन में आनन्द देने के लिये अपने ग्रंथों के द्वारा मेध के . समान अघटित भक्तिरस को प्रगट कर वर्षा किया। ऐसी काव्य-रचना की कि सुन्दर मधुर भाव से मिलित युगल छवि से सुबलित (सुवेष्टित) ललित लीला उसमें वर्णित है । जिस जिसको बुद्धि के नेत्रों से देख सुकलित (सुयुक्त) कविजन हर्षित हृदय से प्रेम बरसते हैं । आप , अपने सदुपदेश तथा ग्रंथ से भव निस्तार के लिये सबों को नित्य दृढ़ भक्ति देते हैं, जिन श्रीभट्टजी के सुयशरूपी चन्द्रमा ने उदित होकर सुजनों के चित्त का अति अंधकार तथा श्रम भ्रम हर लिया। आप आनन्दकन्द श्रीनन्दनन्दन और श्रीमती वृषभानुनन्दिनीजी के भजन में तत्पर थे, और वही उपदेश आपने सबको दिया। (६४)श्रीहरिव्यासजी। (४१४) छप्पय । (४२९) हरिब्यास तेज हरिभजन बल, देवी को दीक्षा दई। खेचर नर की शिष्य, निपट अचरज यह आवै। विदित बात संसार संतमुख कीरति गावै ॥बैरागिन के बन्द रहत सँग श्याम सनेही ।ज्यों जोगेश्वर मध्य मनो सोभित बैदेहीं ॥ श्रीभट्ट चरण रज परसते सकल सृष्टि जाकों नई । हरिव्यास तेज हरिभजनबल, देवी को दीक्षा दई ॥७७॥(१३७) वात्तिक तिलक। श्रीहरिव्यामजी ने अपने हरिभजन के तेज बल से देवी को दीक्षा