पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८७

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+ + + + श्रीभक्तमाल सटीक । (६५) श्रीदिवाकरजी। ADHd44 @ gmgue + (४१७) छप्पय । (४२६) अज्ञान ध्वांत अंतहिं करन, दुतिय दिवाकर अवतखौ। उपदेश नृपसिंह, रहत नित अज्ञाकारी । पक वृक्ष ज्यों नाय संत पोषक उपकारी ॥, बानी "भोलाराम” सुहृद सबहिन परछाया।भक्तचरणरज जाँचि, विशद राघौ गुण गाया ॥ “करमचन्द" "कस्यप सदन बहरि आय, मनो बपु धस्यौ। अज्ञान ध्वांत अंतहिं करन, दुतिय दिवाकर अवतस्यौ॥७८॥ (१३६) वात्तिक तिलक। अपने शिष्य वर्गों के हृदय के अज्ञानरूपी अंधकार को अंत (नाश) करने के लिये श्री "दिवाकर" भक्तजी ने मानों दूसरे दिवाकर (सूर्य) का अवतार लिया। आप श्री १०८ अग्रदेव स्वामीजी के शिष्य थे। सो बड़े बड़े राजसिंहों को उपदेश दिया, वे सब आपके आज्ञाकारी रहते थे। जैसे आम आदिक वृक्ष सफल पक के नव जाते हैं, उसी प्रकार आप अपने फलसम्पत्तियुक्त नमित होकर संतों के उपकारी पोषक हुए । श्राप “भोलाराम भोलाराम" इस वचन के सहारे से वाणी बोलते थे। (अथवा भोलाराम वणिक आपके सुहृद 'मित्र' थे)।आप सब जीवों पर कृपारूपी छाया करते थे, और आपने जीवनपर्यन्त श्रीरामभक्तों के चरणों की रज ग्रहणकर, श्रीरघुनन्दनजी के चरणों का विशद गुणगण- गान किया। आपके पिता श्री "कर्मचन्द" जी, श्री "कश्यप" जी के समान थे, उनके गृह में फिर मानों शरीर धारण कर श्रीदिवाकर (सूर्यदेव)जी ने अवतार लिया ॥