पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८८

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d- +PERMANYAMAHEREngugroun भक्तिसुधास्वाद तिलक। (६६) श्रीविठ्ठलनाथ गुसाई। (४१८) छप्पय । (४२५) "बिट्ठलनाथ” ब्रजराज ज्यों, लाल लड़ाय कै सुख लियौ। राग भोग नित बिबिधिरहत परिचर्या ततपर। सज्या भुषन बसन रचित रचना अपने कर ॥ वह गोकुल वह नंदसदन दीच्छित को सो है । प्रगट विभौ जहाँ घोस * देखि सुरपति मन मोहै ॥ "बल्लभ" सुत बल भजन के, कलियुग मैं द्वापर कियौ। "बिट्ठलनाथ" ब्रजराज ज्यों, लाल लड़ाय के सुख लियौ॥७९॥(१३५) वात्तिक तिलक। श्रीवल्लभाचार्यजी के पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजी ने, मानसी भावना तथा अर्चा विग्रह और अपने पुत्रों ही में श्रीकृष्णभाव मान के, ब्रजराज श्रीनन्दराय की नाई, मधुर प्यार लाड़ लड़ाय कर वात्सल्य- सुख को लिया। नित्यही विविध प्रकार के भोग राग, शय्या, भूषण, वच आदिक सब अपने हाथों से रचना कर श्रीगोपाललाल को

  • "घोष" आभीर पल्ली, अहीरों का पुरवा, गोपग्राम ॥

सातो बेटों की सात गादियाँ गोकुल मे बड़ी बड़ी है। सातों में भगवत् की विशाल मूर्तियां विराजमान थीं 1 उनमे से एक मूति श्रीनाथजी की उदयपुर का राना और दूसरी मूर्ति चन्द्रमा की बालीय जयपुर ले गया। दोनो जगह विट्ठलनाथजी की औलाद वहां अधिकारी दा पुजारी है। उदयपुर और जयपुर में मूर्तियां आलमगीर वादशाह के वक्त में गई अर्थात संवत् १७१४ और १७६४ के मध्य में। एक समय आपके एक बेटे जो भगवत्कला थे एक वन्दर को देखकर डरकर भागकर श्रीविठ्ठलजी की गोद में आ छिपे। "उस समय गोसाई विठ्ठलनाथजी को भगवत् के ऐश्चर्य का ध्यान था इसलिये प्यार से पुत्र रूप से पूछा कि लंका मे वैसे वैसे वन्दरो के साथ थे और यहाँ एक छोटे से बन्दर से डरना क्या बात है" पुत्र-रूप भगवत् ने जवाब दिया कि हम भक्त के उपासना अनुकूल चरित्र कर सुख देते हैं यदि तुमको ऐश्वर्य चित्त मे है तो बालचरित्र की उपासना क्यों ? यह सुन श्रीविठ्ठलजी लज्जित और परम यानन्दमग्न होकर, आपको गोद में लिपटा लिया ।