पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५९

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४२ न.M-----+MAHBueue.HMMM-04 -tgamanand +Hot +NEMA श्रीभक्तमाल सटीक। संतन प्रभाव को । आज्ञा तब दई, “यह भई तोपै साधु कृपा, उनहीं को रूप गुण कहो हिय भाव को ॥” बोल्यो करजोरि, “याको पावत न ओर छोर, गाऊँ राम कृष्ण नहीं पाऊँ भक्ति दाव को।” कही समुझाइ, “वोई हृदय भाइ कह सब, जिन लै दिखाई दई सागर में नाव को” ॥११॥ (६१८) तिलक। इतना सुनते ही आप नवीन आश्चर्य में प्राकर विचारने लगे कि इसकी यहाँ तक पहुँच हुई। तथा मन में अत्यन्त आनन्द छा गया, और जाना कि यह सन्तों के प्रसादी और चरणामृत का प्रभाव है । तब आपने इन्हें प्राज्ञा दी "वत्स ! यह तुम पर साधुओं की अलभ्य कृपा हुई, अतः अब तू सन्तों ही के गुण स्वरूप तथा हृदय के भाव को वर्णन कर।" (भवसागर के तरने का यही उपाय है।) इनने हाथ जोड़ के निवेदन किया कि “स्वामी श्रीराम कृष्ण चरित्र गा सकूँ, परन्तु भक्तों के अपार रहस्य चरित्रों का श्रादि अन्त पाना तो मुझको असम्भव ही है ।" आपने समझाया कि "पुत्र ! जिनने तुम्हें समुद्र में जहाज को दिखा दिया, वे ही तुम्हारे हृदय में प्रवेश करके अपने अलौकिक रहस्यों को कहेंगे। सो, तुम भव भक्त यश कह ही चलो।" ऐसे वरदानात्मक वचनवर सुनके श्रीकृपा से श्रीनाभाजी महाराज आनन्दपूर्वक उद्यत होही तो गए, और "श्रीभक्तमाल रचही तो दिया। ___-श्रीभक्तमालजी में १६५ छप्पय (षट्पदी) हैं, आदि में चार दोहे हैं, एक कुण्डलिया तथा एक दोहा मध्य में, अन्त में तेरह दोहे हैं, सब मिलके २१४ (ो सौ चौदह) छन्द हैं । यही "मूल भक्त- माल" है, जो इस ग्रन्थ में बड़े अक्षरों में छपा है । और श्रीप्रियादासजी की "भक्तिरसोधिनी” नाम उसी की टीका ६२६ कवित्तों में है। इन्हीं आठ सौ तेंतालीस (२१४+६२६८४३) छन्दों का भावार्थ, यथामति, सन्तों की कृपा से लिखना, इस दीन का उद्देश्य है ॥