पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६०८

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I MERMISHRA -rinamerimeHOMMAN D भक्तिसुधास्वाद तिलकै। ५८९ मानों द्वितीय “मध्वाचार्य" ही थे। भगवान के जितने अवतार, उन सबके सवही को पूर्ण अवतार मानते, अंश, कला भेद नहीं रखते थे। "विजयध्वजी" परिपाटी के अनुसार "श्रीमद्भागवत" की कथा कहते, श्रुति, स्मृति, पुराण, सबसे सम्मत, किसी से कुछ विरोध नहीं रखते, अपने भुजाओं पर भगवत् अायुधों की तप्त मुद्रा धारण किये हुए थे। (१०७) श्रीनारायणभट्टजी। (४४२) छप्पय । (४०१) "ब्रजभूमिउपासक” भट सो, रचि पचि हरि एकै कियौ॥गोप्यस्थल मथुरा मंडल जिते, "बाराह" बखाने । ते किये "नारायण" प्रगट प्रसिद्ध पृथ्वी में जाने।भक्ति- सुधा की सिंधु सदा सतसंग समाजन । परम रसज्ञ, अनन्य, कृष्णलीला को भाजन ॥ ज्ञान समारत पच्छ को नाहिंन कोउ खंडन बियो। "ब्रजभूमिउपासक भटूट सो, रचि पचि हरिएकैकियो॥८७॥ (१२७) वात्तिक तिलक । श्रीनारायणभट्टजी ब्रज की भूमि के उपासक हुए, नाम, रूप,लीला, धाम को एक ही करके (अभेद) मानते थे । आपने वाराहपुराणातु- सार श्रीमथुरामण्डल के सब गोप्यस्थल प्रगट किये । आप भक्तिपीयूष- सागर, और सन्तों के समाजों में रहनेवाले, परम रसज्ञ, अनन्य, और श्रीकृष्णलीला के बड़े प्रेमी थे। किसी स्मात के पक्ष का खण्डन नहीं करते थे। (४४३) टीका ! कवित्त । (४००) भट्ट श्रीनारायनजू भये ब्रजपरायन, जा जाही ग्राम तहाँ व्रत करि