पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२१

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MulaanemiNirma- TIPANpamanardarinarauraMare4m ental २०......................श्रीभक्तमाल सटीक । कला गंधर्व,स्याम स्यामा को तोड़ें। उत्तम भोग लगाय, मोर मरकट तिमि पोर्षे ॥ नृपति द्वार ठाढ़े रहैं, दरसन आसा जास की।“आसधीर" उद्योत कर, "रसिक छाप हरिदास की ॥६॥ (१२३) वात्तिक तिलक। स्वामी श्रीहरिदासजी शृङ्गारउपासना में बड़े ही दृढ़ और धीर हुए। अपने पिता श्रीवासधीरजी के सूर्यवत् प्रताप से रसिकों में आप प्रसिद्ध हुए। आप "श्रीरसिकजी" इस नाम से प्रसिद्ध थे। श्रापका नेम प्रेम श्रीयुगल नाम (श्रीराधाकृष्ण) से था, "श्रीकुंजविहारी" को नित्य जपा करते थे। रसराज अर्थात् सखी सुख के अधिकारी थे, श्रीप्रियाप्रिय- तम की केलि (विहार) को सदैव देखा करते, संगीतकला में गन्धर्व से बढ़के थे, अपने गान से श्रीयुगल सकार को तुष्ट रखते, उत्तम उत्तम भोग लगाया करते, प्रसाद सन्तों तथा बन्दरों, मयूरों, मछलियों को भी बड़ी प्रीति से पवाते थे। आपके दर्शन के लिये राजा लोग द्वार पर खड़े रहा करते थे। (४५८) टीका । कवित्त । (३८५) स्वामी "हरिदास" रसरास को बखान सके, रसिकता छाप जोई जाप मधि पाइयै । ल्यायो कोऊ चोवा, वाको अति मन भोवा वामैं डाखो ले पुलिन यह, “खोवा” हिये आइयै। जानिकै सुजान, कही "लै दिलावी लाल प्यारे", नैसुकु उघारे पट सुगंध बुड़ाइये । पारस, "पाषान" करि जल डरवाय दियौ, कियौ तब शिष्य, ऐसे नाना विधि गाइयै ।। ३६७ ॥ (२६२) वात्तिक तिलक । रसिक स्वामी श्रीहरिदासजी के रसरास वा शृङ्गारनिष्ठा का वर्णन किससे हो सकता है। श्रीयुगल सार के नित्यविहार में सखी ।

  • "नसुकु"= किंचित्पट, परदा, तथा श्रीअङ्ग को वस्त्र ॥