पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२०

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lin +Haramirarartmu rurammu and -tramare -tramANatomere भक्तिसुधास्वाद तिलक । गति दूँगा इसको प्रमाण जानो।" इस प्रिय वाणी को सुन सब बड़े प्रसन्न हुए। जैसी रीति श्रीराधावल्लभजी की सेवा प्रीति की आपके सम्प्रदाय में प्रगट हुई, मन में समझने की बात है कही कैसे जावै। आप बीड़ा प्रसाद को एकादशी व्रत से लाख गुना अधिक समझते थे। इसकी चमत्कृति श्रीवृन्दावन में देखिये । वहाँ श्रीप्रियाजी का प्रताप प्रत्यक्ष है । (४५६) टीका ! कवित्त । (३८७) राधिकाबल्लभलाल आज्ञा सो रसाल दई सेवा मो प्रकास औ बिलास कुंज धामको । सोई विसतार सुखसार हग रूप पियौ, दियो रसिकनि जिन लियौ पच्छ बामको ॥ निसि दिन गान रस माधुरी को पान उर अंतर सिहान एक काम स्यामास्यामको । गुन सो अनूप कहि, कैसे कै सरूप कहै, लहै मन मोद, जैसे और नहीं नामको ॥३६६ ॥ (२६३) वात्तिक तिलक। श्रीराधिकावल्लभलाल ने रसाल आज्ञा दी जिससे सेवा रीति का और कुंज तथा धाम के विलास का प्रकाश हुमा। सोई सुखसार का विस्तारपूर्वक श्रीकृपा से आँखों से दर्शन पाया,और रसिकों को बताया, इन भाग्यभाजनों ने श्रीपियाजी की प्रधानता मान ली और आपका पक्ष लिया। रात दिन श्रीयुगलसकार के यश को गाते थे, रस माधुरी को पीते थे, कोई अन्य कामना नहीं रखते थे, केवल युगलसकरि को हृदय के भीतर सिंहासन पर विराजमान कराए रहते थे। अनूप गुण नाम रूप हैं मन ही उनसे मोद पाता है, कहते नहीं बनता ।। (११२) श्रीहरिदासजी रसिक। (४५७) छप्पय । (३८६) "आसधीर" उद्योतकर, "रसिक” छाप हरिदास की॥ जुगल नामसौं नेम, जपत नित कुंजबिहारी। अवलोकत रहैं केलि, सखी सुख. के अधिकारी ॥ गान