पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२३

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६०४ + mandut ++ + + A + r t 44- + - - - - - श्रीभक्तमाल सटीक। अच्युत गोत्री जुलड़ायें। नौगुण तोरि नुपुर गृह्यौ महत सभा मधि रास के। उत्कर्षतिलक अरु दाम कौ, भक्तइष्ट अति “व्यास" के॥६२ ॥(१२२) वात्तिक तिलक। संतसेवी श्रीव्यासजी ऊर्ध्वपुण्डू तिलक और श्रीतुलसी की कण्ठी. माला पर विशेप आग्रह रखते, माहात्म्य वड़ाई करते तथा हरिभक्तों को आप अपना परम इष्टदेव ही मानते थे। कोई कोई श्रीभगवत् के मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुरामादिक अवतारों की भाराधना करते हैं, कोई कोई श्रीकृष्णचन्द्रजी की उपासना करते हैं, किसी किसी के सर्वस्व श्रीसीतापति रामचन्द्रजी ही हैं, और किसी किसी को भग- वत् की नवधा भक्ति का नियम होता है, परन्तु श्रीसुमोखनजी के पुत्र श्रीशुक्ल श्रीव्यासजी महाराज तो अच्युत गोत्री (भागवत, वैष्णव, भगवद्भक्त, सन्त) ही को अपना इष्ट जानकर भक्तों ही के लाड़-प्यार उपासना पूजा किया करते थे। एक रात शरदपूनों के रास रहस्य समाज के समय श्रीप्रियानी का नपुर टूट गया, वहीं उसी क्षण अपने कंधे का नवगुण अर्थात् यत्रो- पवीत तोड़कर उसी से श्रीपदपंकज के धुंघरू को गूंथकर आपने ठीककर पहना दिया। प्रेम की जय !!! (४६०) टीका । कवित्त । (३८३) श्राये गृह त्यागि, बृन्दाबन अनुराग करि, गयौ हियो पागि होय न्यारो तासों वीझियै । राजा लैन धायो ऐ जायवी न भायो, श्री- किशोर उरझायौ मन, सेवा मति भीजिये । चीरा जरकसी सीस ची. कनौ खिसिलि जाय, “लेड जू वधाय, नहीं भाप बॉधि लीजिये। गये उठि कुंज, सुधि आई सुखपुंज, आये देख्यों बँध्यौ मंजु, कही "कैसे मोपै रीमिय" ॥३६८ ॥ (२६१)