पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। वात्तिक तिलक । श्रीव्यासजी सनाढ्य ब्राह्मण, ( महात्मा सुमोखन शुक्लनी बुंदेलखंडी ओड़छा निवासी के आत्मज) बड़े धर्मप्रचारक, श्रीराधा- वल्लभीय सम्प्रदाय के हुए । आपका पहिला नाम "हरीराम" था। "मोड़छे" के रहनेवाले थे । जब पैंतालीस वर्ष के हुए तव संवत् १६ १२ में, घर त्यागकर श्रीवृन्दावन आए । आपकी पद्धति के, (१) वृन्दावनी व्यासवंशी गुसाई और (२) श्रोडछावाले गुसाई दो नामों से विख्यात हैं। आपको श्रीवृन्दावन में विशेष निष्ठा थी, धाम के प्रेम में आपके अन्तःकरण पग रहे थे। जो श्रीचन्दावन से जाया चाहता “आप उससे अप्रसन्न होते, ओड़छे का नरेश “मुद्गर" एक समय आपको विनयपूर्वक लेने आया, पर आपको श्रीवृन्दावन से अन्यत्र जाना नहीं भाता था, राजा को दिखाकर एक भगिन के हाथ के पत्तल से श्रीगोविन्दप्रसाद सन्तों का उच्छिष्टसीथ भाप लेकर पागए (खा लिया), भला इस मर्म को नृपति क्या समझ सकता ? वह लौट गया, पाप अति प्रसन्न हुए, आपकी मति और मन तो श्रीकिशोरसेवा में गठे थे, कहने लगे कि “संसार एक पकोड़ी ही का हुआ ॥" एकबेर परमोत्तम चीरा श्रीठाकुरजी के सीस में बाँध रहे थे, चिकनाई से सरक सरक जाते देख आप मन्दिर से यह कहते निकले कि “मुझसे बँधा लीजिए, यदि मेरा बाँधा नहीं भावे तो श्रापही बाँध लीजिये।" और सेवाकुंज दर्शन करने चले गए, कुछ क्षण बीते गृह के लोगों ने चीरा बाँधे देख जा सुनाया, आप सुखपुंज पाय फिर गए तो ऐसा सुन्दर बँधा दर्शन पाया कि हर्ष से फूले न समाए, सव दर्शन करके चीरा की बधाई की प्रशंसा करने लगे। श्राप बोले कि “जब श्राप ही ऐसा सुन्दर वाँध सकते हैं, तब भला इस दीन का बाँधा क्योंकर भावै ॥ (४६१) टीका । कवित्त । (३८२) _संत सुख देन बैठे संग ही प्रसाद लैन, परोसति तिया सब भाँतिन प्रवीन है। दूध वस्ताई ले मलाई छिटकाई निज, खीमि उठे,