पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३४

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An +mangram Me + - ++ new भक्तिसुधास्वाद तिलक । प्यास हग, सुधि बुधि गई है ॥ नाम धरि, रास ो विहारी, सेवा प्यारी लागी, खगी हियमाँझ, गुरु सुनी बात नई है । विपिन पधारे, श्राप जाय पग धारे सीस, "ईश मेरे तुम," सुख पायो, कहि दई है ॥ ३७६ ।। (२५३) वात्तिक तिलक । श्रीअलिभगवान ने गुरु से श्रीराममन्त्र पाया । श्रीवृन्दावन में रास के बड़े ही प्रेमी हुए। दर्शन के बड़े प्यासे थे। श्रीठाकुरजी को “गस- बिहारी" जी कहते, और अच्छे प्रकार से सेवा करते थे। कृपा करके गुरुजी ने श्रीवृन्दावन में जाकर दर्शन दिये । गुरु आगमन सुन, आपने श्रीचरण पर अपना सीस रखकर विनय किया कि "यद्यपि थाप गुरु ईश से बड़े हैं, तथापि मेरा सम्पूर्ण मन तो रासबिहारीजी में बहुत आनन्द मानता है ।” सुनकर श्रीगुरुभगवान अलिभगवान से प्रसन्न हुए और कहा कि “रासविहारीजी भी तो श्रीरामजी ही के अवतार हैं, रास- विहारीजी ही में पगे रहो ॥" (११७) श्रीविठ्ठल विपुलजी। (४७१) टीका । कवित्त । (३७२) स्वामी हरिदासजू के दास, नाम वीठल है, गुरु से वियोग दाह उपज्यो अपार है । रास के समाज में विराज सब भक्तराज, बोलि के पठाये, आये आज्ञा बड़ो भार है ॥ युगल सरूप अवलोकि, नाना नृत्य भेद, गान तान कान सुनि, रही न सँभार है । मिलि गये वाही ठोर, पायो भाव तन और, कहे रससागर सो ताको यों विचार है ॥३७७॥ (२५२) वात्तिक तिलक । लीलारसिक तथा गुरुनिष्ठ श्रीविपुल बिट्ठलजी स्वामी श्रीहरि- दासजी के शिष्य थे। श्रीगुरु के परमधाम जाने पर गुरु वियोग ने आपको बड़ा शोकाकुल कर दिया, कहीं जाते आते न थे। एक रात वहाँ (श्रीवृन्दावन में) रास के समाज में महानुभावों ने आपको बुला भेजा, आज्ञानुसार श्राप गए । श्रीयुगलसर्कार के दर्शन कर,