पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३३

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A drdad+ t-de- and- at- श्रीभक्तमाल सटीक। (११५) गुसाई श्रीगोपालभटजी। (४६९) टीका । कवित्त । (३७४) श्रीगोपालमहजू के हिये वै रसाल बसे, बसे यों प्रगट राधाखन सरूप हैं। नाना भोग राग करे, अति अनुगग पगे, जगे जग माहि, हित कौतुक अनूप हैं ॥ बृन्दावन माधुरी अगाध को सवाद लियो, जियो जिन पायो सीथ, भये रस रूप हैं। गुनही को लेत, जीव अवगुन को त्यागि देत, करुनानिकेत, धर्मसेत, भक्तभूप हैं ।। ३७५ ॥ (२५४) वात्तिक तिलक। गुसाई श्रीगोपालभट्टजी शृङ्गार माधुर्य और धामनिष्ठा में निपुण, गौड़ ब्राह्मण, महात्मा श्रीव्यंकटभट्टी के बेटे, महाप्रभु श्रीकृष्ण- चैतन्यजी के शिष्य ने,श्रीवृन्दावन की अगाध माधुरी का स्वाद लिया, आपके हृदय में वे रसाल नाम श्रीराधारमणजी प्रगट स्वरूप से बसते थे। नाना प्रकार के भोगराग बड़े अनुराग से अर्पण किया करते थे, संसार में बड़े प्रसिद्ध हुए, आपके सर्वहितू होने के अनेक कौतुक हैं, जिसने आपकी सीथप्रसादी पाई वह जीवनमुक्त, रसका रूपही हो गया, किसी जीव का अवगुण अपने मन में कभी न लाते थे, सब प्राणियों के गुणों ही को हृदय में सदा रखते थे। सब सम्पत्ति ऐश्वर्य को परित्याग कर श्रीवृन्दावन में मा बसे थे। धर्मसेत, करुणानिकेत और भक्तभूप हुए॥ एक बेर प्रभु प्रति कृपा करके (वैशाख की पूर्णमासी को) आपके सेवावाले शालग्रामजी में से परम सुन्दर मूर्ति प्रकट हुए, जो श्रीराधा- रमणजी अभी तक मन्दिर में विराजमान हैं । भक्तरुचि रखनेवाले भाव- ग्राहक श्रीप्रभु की जय ॥ (११६)श्रीअलिभगवान् । (३७०) टीका । कवित्त । (३७३) । अलिभगवान, रामसेवा सावधान मन, वृन्दावन आये कछु और रीति भई है । देखे रासमण्डल में विहरत रस रास, बाढ़ी छवि