पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३८

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++R aut + And भक्तिसुधास्वाद तिलक । ... ६१९ (१२१) श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीजी। __(४७५) टीका । कवित्त । (३६८) गुसाई श्रीसनातन जू “मदनमोहन" रूप मायें पधराये कही "सेवा नीके कीजिय" । जानी "कृष्णदास" ब्रह्मचारी अधिकारी भये, भट्ट श्रीनारायणजू सिख्य किये रीझियै ॥ करिके सिंगार चारु. आपही निहारि रहै, गहें नहीं चेत भाव माँझ मति भीजियै । कहाँ ली बखान करौं राग भोग रीति भाँति, अवलौं विराजमान देखि देखि जीजिये ।। ३८१॥ (२४८) वात्तिक तिलक । प्रेमी श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीजी गुसाई श्रीसनातनजी के शिष्य थे, सो इसको योग्य, प्रेमी, तथा सुपात्र जानके आप (श्रीसनातनजी) ने प्रभु "श्रीमदनमोहन” विग्रहजी के कैकये का भार कृष्णदासजी के सीस पर घर, आपने कहा कि "प्रभु की सेवा मले प्रकार करो।" श्रीगुरुवाज्ञा माथे रख यथार्थ सेवा करने लगे, क्योंकि सेवा के अधिकारी ही थे। कुछ कालांतर में श्रीनारायण भट्टजी आपके (श्रीकृष्णदास ब्रह्मचारीजी के) शिष्य हुए, उनको सेवा सौंपी, उनकी प्रेमाभक्ति प्रभु के रीझने योग्य थी, आपकी सानुराग सेवा क्या कही जाय, अति सुन्दर श्रृंगार करके श्रीवि को इकटक देखते निहारते प्रेम समाधि लग जाती थी, तन मन की सब सुधि भूलि मति चित्त भावानुराग में भीग जाते थे, और राग भोग की रीति भाँति कहाँ तक बखान की जाय । मापके प्रेम के लड़ाये हुए श्रीमदन- मोहनजी अब तक विराजमान हैं जिनके दर्शन से जीवों का जीवन सुफल होता है ।। (१२२) श्रीकृष्णदास पंडितजू । (४७६) टीका । कवित्त । (३६७) श्रीगोविन्दचन्द रूपरासि रसरासि दास, कृष्णदास पंडित ये दूसरे यों जानि ले। सेवा अनुराग अंग अंग मति पागि रही. १ श्रीरामदासजी और श्रीकृष्णदासजी भक्त कई हुए है। to.- -