पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३९

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++-+- ६२० श्रीभक्तमाल सटीक । पागि रही मति जौपै तो यह मानि ले । पीति हरिदासन सों विविधि प्रसाद देत, हिये लाय लेत, देखि पद्धति प्रमानि ले । सइज की रीति में प्रतीति सो चिनीति करें, ढरै वाही और मन अनुभव आनि लै ॥ ३८२ ॥ (२४७) बात्तिक तिलक । रूप के राशि श्रीगोविन्दचन्दजी के रसराशि दास "प्रेमी श्री- कृष्णदासजी पंडित" जान लेना चाहिये । प्रभु की सेवा अनुराग के जितने अंग हैं, उन सबों में इनकी मति पग रही थी। हे श्रोता- जनो ! जो आपकी भी मति प्रेम से पगी हो, तो यह वार्ता हितकरके मान लीजिये। __ श्रीकृष्णदासजी की हरिदास वैष्णवों से अति प्रीति थी, सन्तों को श्रीगोविन्दजी का विविध प्रकार का प्रसाद देते, हृदय में लगा लेते थे, इस प्रेम सम्प्रदाय को भी बुद्धि के नेत्रों से देखकर प्रमाण करना चाहिये । प्रेमी पंडितजी श्रीहरि और हरिभक्कों से सहजरीति ही से अति विनीत हो, प्रीति प्रतीति रख उसी ओर ढरते थे। इस प्रेमाभक्ति का अनुभव अपने मन में करना चाहिये। (१२३) श्रीभूगर्भ गोसाईजू। (४७७) टीका । कवित्त । (३६६) गुसाई "भूगर्भ" वृन्दावन हदवास कियो, लियो सुख वैठि कुंज "गोविंद” अनूप हैं । बड़े विरक्तअनुरक्त रूप माधुरी मैं, ताही को सवाद लेत मिले भक्त भूप हैं ॥ मानसी विचार ही अहार, सो निहारि रहै, गहैं मन वृत्ति, वेई, युगल सरूप हैं। बुद्धि के प्रमान उनमान में बखान कखो भवौ बहु रंग नाहि जानै स्स रूप हैं ॥ ३८३ ॥ (१४६) बातिक तिलक । गुसाई श्री "भूगर्भजी" ने धामनिष्ठा दृढ़तापूर्वक वृन्दावन वास किया और अति अनूप श्री "गोविन्द" कुंज (मन्दिर) में विराज- मान होकर श्रीगोविन्ददेव भगवान के प्रेम के सुख के लिये, श्राप