पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५१

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Sharing श्रीभक्तमाल सटीक। डारि दियो कुलाचार, 'चले जगन्नाथ देव, चाह उपजाई है। मिल्यो एक संग संग जात, वे सुगात सब, तब आप दूर दूर रहै जानि पाई है ॥ ३६५ ॥ (२३४) वात्तिक तिलका स्वप्न में प्रभु की आज्ञा सुन साधु शालग्रामजी को ले श्रीसधनजी के पास आकर कहने लगे कि “मैंने बड़ा अपराध किया तुम्हारे यहाँ से शालग्रामजी को ले गया, अभिषेक प्रतिष्ठाकर पूजा सेवा किया परन्तु प्रभु को प्यारी न लगी, ये तुझी पर रीझे हैं, मुझे स्वप्न में आज्ञा दी कि 'हमको उसीके पास पहुँचा दो,' सो लो चाहे मांस तोलो चाहे पूजा करो" ऐसा सुनते ही श्रीसधनजी प्रेम में मग्न हो गये । देह की सुधि बुधि भूल गई, गद्गद कंठ, रोमांच शरीर, हो गये। अब तो कुलाचार और घर को तज प्रभु को हृदय में धारणकर श्रीशालग्रामजी को ले,जगन्नाथजी के दर्शन को चल दिये । और भी यात्री मिले, उन्हीं के साथ साथ चले, पर वे सब इनको कसाई जान ग्लानि युक्त हुए, तब उनके मन का भाव जान उन सबका संग छोड़ श्राप पृथकू हो चले ॥ (४९२) टीका । कवित्त । (३५१) . श्रायौ मग गाँव, भिक्षा लेन इक ठाँव गयो, नयो रूप देखि कोऊ तिया रीझि परी है। "बैठौ याही ठौर करौ भोजन" निहोरि कह्यौ, रह्यो निसि सोय, आई "मेरी मति हरी है । लेवो मोकों संग," गरौं काटो तौ न होय रंग, बूझी और काटी पतिग्रीव. पै न डरी है। कही "अब पागो मोसों," "नातौ कौन तोसों मोंसों,” सोर करि उठी "इन मारयौ" भीर करी है ॥ ३६६ ॥ (२३३) वात्तिक तिलक । मार्ग में एक ग्राम मिला, वहाँ एक घर में श्राप भिक्षा लेने गये एक स्त्री इनका नवीन रूप देख, रीझके कामवश हो, बोली कि "तुम आज यहाँ ही भोजन करौ, रही," आपने वैसा ही किया, वह स्त्री रात्रि में समीप था कहने लगी “मेरी, मति तुम पर रोक