पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

44444 भक्तिसुधास्वाद तिलक । गई है, मुझको अपने साथ ले चलो," आप बोले कि “जो तू गला भी काट डाले तो भी मैं तुझसे प्रेम नहीं कर सकता।" उस दुष्टा ने और का और ही समझ, भय छोड़, अपने पति का काठ काट डाला, और वह आके कहने लगी कि “अब मेरा अंग संग करौं ।” श्रीसधनजी ने उत्तर दिया कि “मैं तो पहिले ही इनकार कर चुका हूँ, तुझसे मुझको क्या सम्बन्ध है ?" तब तो । रो रो पुकारने लगी कि "अपने साथ मुझे ले चलने के हेतु इसने मेरे पति को मार डाला है।" सुनकर गाँव के सब लोग इकट्ठे हो गये। (४९३) टीका । कवित्त । (३५०) हाकिम पकरि पछै, कहै हँसि "माखौ हम," डाखौ सोच भारी, कही "हाथ काटि डारियै”। कयौ कर, चले, हरि रंग माँझ मिले, मानी जानी "कछु चूक मेरी" यहै उर धारिये ॥ जगन्नाथदेव, आगे पालकी पठाई लेन सधना सो भक्त कहाँ ? चढ़े न विचारियै । चढ़ि आये प्रभु पास, सुपनौ सो मियो त्रास, चाले “दै कसौटी हूँ पै भक्ति विसतारिये" ॥३६७॥ (२३२) वात्तिक तिलक। जब वह दुष्टा स्त्री यों चिल्लाने पुकारने लगी कि "यह मेरे पति को मार, मुझे साथ ले चलने को कहता है, तब इस बात को सुन उस गाँव के अधिपति ने सधन को पकड़वाफे पूछा । आपने हँस कर कह दिया कि “हाँ, हमने मारा है।" परन्तु उस ग्रामाधिप को इनकी भक्ति लक्षण देखके पूरा पूरा निश्चय नहीं हुआ, बड़ाभारी सोच करने लगा कि "अब मैं क्या करूँ ?” इससे इनका वध तो नहीं किया, केवल हाथ कटवाकर छोड़ दिया। हाथ कटने पर श्रीजगन्नाथजी के दर्शन को चल दिये। कुछ मन में दुःख मलीनता नहीं पाई, वरंच प्रेम भक्ति की ओर अधिक मन मिला, विचारपूर्वक हृदय में यह निश्चय किया कि “मेरा