पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६६९

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श्रीभक्तमाल सटीक इन्होंने हरिभक्तों को अपना तन मन धन सर्वस्व अर्पण किया, तीनों- धाम में ये १४ भक्त भगवत् श्रीअंग के सदा समीप रहनेवाले, कृतपुण्य- पुंज, भले प्रकार भाग्य से भरे हुए, तेजपुंज हुए। (१३४)श्रीरुद्रप्रताप गजपतिजी। (५१०) टीका । कवित्त । (३३३), श्रीप्रतापरुद्र गजपति कै बखान कियो, लियौ भक्तिभाव महा प्रभु पै, न देखहीं। किये हूँ उपाय कोटि, ओटि लै संन्यास दियो, हियो अकु- लायौ "अहो । कि हूँ मोको पेखहीं"। जगन्नाथ रथ आगे नृत्य करें मत्त भये नीलाचलनृप पाय पस्यो, भाग लेखहीं । बाती सों लगायो, प्रेम- सागर बुड़ायो, भयौ अति मन भायौ, दुख देत ये निमेखहीं ॥ ४०६ ॥ ( २२०) बात्तिक तिलक। श्रीरुद्रप्रताप गजपतिजी.नीलाचल पुरुषोत्तमपुरी के राजाथे। महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्यजी से भक्तिभाव मन्त्र ग्रहण कर शिष्य हुए। महाप्रभु ने इनकी प्रेमपरीक्षा लेने के अर्थ किसी दिन से इनकी ओर देखना छोड़ दिया । आपने कोटिन उपाय किये तथापि प्रभु ने नहीं ही देखा, तब संन्यास वेष का प्रोट लिया, और हृदय में अत्यन्त आकुलता हुई कि "मुझे किसी प्रकार से श्रीगुरु कृपादृष्टि से देखें ॥” एक दिवस प्रेम से मत्त हुए महाप्रभुजी श्रीजगन्नाथजी के स्थ के आगे नृत्य करते थे, भाग्य समझ, प्रेम से विह्वल हो, साष्टांग पड़ राजा ने चरणों को पकड़ लिया, महामभुजी ने सत्य प्रेम देख, उठाकर छाती में लगा प्रेमानन्द के समुद्र में मग्न कर दिया। राजा को मनोरथ अति पूर्ण हुआ॥ श्रीहरि गुरु थोड़े ही काल अपने वियोग का दुःख देकर फिर सदा के लिये अखण्ड सुख दे देते हैं। (५११) छप्पय । (३३२) हरिसुजस प्रचुर कर जगत मैं,*ये कबिजन अतिसय + पाठान्तर मय, मे ।।