पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६७३

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Pandd ingng me +- श्रीभक्तमाल सटीक । लगावैगा, मेरी तो सब सुधि बुधि भूल गई, बड़ी ही चिंता उत्पन्न हुई है, मेरे मित्र को हदि लाइये तब मेरा मन प्रसन्नता युक्त हो, आपने जितने भोग लगाये हैं मैंने उसमें से अभी किंचित् भी नहीं पाया, उसकी रिस शान्त हो तब मुझे कुछ अच्छा लगेगा।" श्रीगुसाईजी सुनते ही होड़े, बड़ी कठिनता और बड़े यत्न से आपको मनाकर लाये, कहा कि “तुम्हारे प्रेमी ने कहा है कि पाकर मेरे साथ मिलकर खाय और गले मिलें।" ऐसा ही किया ॥ (५१५) टीका ! कवित्त । ( ३२८) ___ गये हैं बहिरभूमि, तहाँ कृष्ण पाये भूमि, करी बड़ी धूम, पाक- बोडिन सौं मारि के। इनहूँ निहारि उठि मार दई वाही सों जु कौतुक अपार सख्यभाव रससार के ॥ माता मगचाहै, बड़ी बेर भई, आई तहाँ, “कहाँ वार लाई भोट पाई उर धारि के। आयो यों विचार अनुसार सदाचार कियो, लियो प्रेम गाढ़, कयूँ करत सँभारि के ॥ ४१३ ॥ (२१६) वात्तिक तिलक । एक दिवस, गोविन्दस्वामीजी वहिरभूमि (शौच) के लिये गये थे, वहाँ ही प्रेमानन्द से झूमते श्रीकृष्णचन्द्रजी श्राकर, उसी दशा में प्राक (मदार) के फलों से आपको मार मार कर बड़ी धूम मचाने लगे, आपने देखा तव उठकर उन्हीं फलों से श्रीकृष्णचन्द्रजी को भी श्राप मारने लगे। दोनों सख्यभाव रससार में छके हुए अपार कौतुक मचा रहे थे, गोविन्दसखाजी की माता बड़ा विलम्ब जान मार्ग देख रही थीं, फिर विचारने लगी कि “कहाँ विलंब लगाया ?" वहाँ ही आई, उनको देख श्रीकृष्णचन्द्र छिप गये, आप उसकी पोट (बहाने) से बचे। और तब मन में विचार आया, शौच का सदाचार किया की। इस प्रकार के गाढे प्रेम से छके, श्रीबड़भागीजी कभी सँभारसे, और कभी बे सँभाले अपने मित्र के संग खेला करते थे ॥ (५१६) टीका । कवित्त । (३२७) आवत हो भोग महासुन्दर सुमन्दिर कों, रह्यो मग बैठि, कही “श्रागें मोहिं दीजिय" । भयो कोप भार, थार डारि, जा