पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९०

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+ PIN-HPRADHAN भक्तिसुधास्वाद लिलक । ६७१ (५२३) टीका ! कवित्त । (३११) __ मारवार देस ते चल्यो ई साष्टांग किये, हिए “जगन्नाथ देव याही पन जाइये” । नेह भरि, भारी, देह वारि फेरि डारी, कैसे करै तनधारी, नेकु श्रम मुरझाइये । पहुँच्यो निकट जाय, पालकी पठाइ दई, कहैं "लाखा भक्त कौन ? बेगि दै वताइयै”। काहू कहि दियौ, जाय कर गहि लियो, “श्रजू ! चलो प्रभु पास, इहि छिनहीं बुलाइये" ॥ ४२५ ॥ (२०४) __ वात्तिक तिलक । श्रीलाखाभक्तजी मारवाड़ देश में जहाँ रहते थे वहाँ ही से साष्टांग प्रणाम करते श्रीजगन्नाथजी के दर्शन को चले। हृदय में यह निश्चय प्रतिज्ञा की कि “साष्टांग प्रणाम करते ही श्रीजगन्नाथ देव जी के समीप तक जाऊँगा" सो इसी प्रकार से गये ! बड़े भारी प्रेम से भरे हुए प्रभुके ऊपर देहको न्यवछावर कर दिया, भला देखिये किसी तनधारी से ऐसा परिश्रम कैसे हो सकता है, थोड़े ही परिश्रम करने में लोग मुरझा जाते हैं। आप दंडवत् करते ही जा पहुँचे। श्रीजगन्नाथनी ने अपने पंडों पार्षदों के साथ अपनी पालकी भेज दी। वे सब मार्ग में पूबते चले आते हैं कि “लाखाभक्त कौन है ?" किसी आपके संगी ने बता दिया। पंडे लोग जाकर हाथ पकड़ बोले "अनी भक्तजी ! इस पालकी पर चढ़के चलिये । प्रभुने इसी क्षण बुलाया है।" (५३३) टीका । कवित्त । ( ३१०). "कसे चढ़ी पालकी मैं ? पन प्रतिपाल कीजै, दीजै मोकों दान, यही भाँति जा निहारियै” । बोले "प्रभु कही भाय सुमिरनी वनाय ल्याये, अब पहिराय मोहिं सुनि उर धारियै ॥ चढ़े, “चदि बढ़ि कियो चाहै, यह जानी में तो, पढ़ि पढ़ि पोथी प्रेम मोपे विसतारिय" जाय के निहारे, तन मन पान वारे, जगन्नाथ जू के प्यारे नेकु ढिग तें न यरियै ।। ४२६ ॥ (२०३) वात्तिक तिलक । - आप हाथ जोड़ कर बोले “मैं पालकी पर किस प्रकार चहूँ?