पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९२

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६७३ भक्तिसुधास्वाद तिलक । भर, चले थाये । श्रीजगनाथजी ने एक भक्त राजा कोस्वप्न दिया उसने मार्ग में चौकी बैठा दी, जब आये तब लोग राजा के पास ले गये। राजा ने सत्कार कर विनय प्रार्थना की कि मुझे स्वप्न में प्रभु ने आज्ञा दी है सो पाप हठ मत कीजिये कन्या के विवाह के लिये द्रव्य लीजिये तव आपने लिया, राजा ने हुंडी लिखा दी। (५३५) टीका ! कवित्त । (३०८) ___ हुंडी सो हजार की, यों लेके गृहद्वार आये. तामैं तें लगायौ सौक वेटी व्याइ किया है । और सब संतनि बुलाय के खवाय दिये, लिये पग दास सुखरासि पन लियौ है ॥ ऐसे ही बहुत दाम वाही के निमित्त ले ले, संत भुगताये अति हर्षित हियौ है । चरित अपार कछु मति अनुसार कह्यौं, लह्यो जिन स्वाद सो तो पाय निधि जियो है ॥ ४२७ ॥ (२०१) बात्तिक तिलक । दशसौ (एक सहस्र) रुपये की हुंडी लेकर गृह में आ, इन्होंने केवल एकसौ रुपये लगाके तो अपनी कन्या का विवाह कर दिया, और शेष सब द्रव्य सन्तों को बुलाकर दिव्य पदार्थ भोजन करा दिये, सब संतों के चरण ग्रहण कर सुखी हुए। इसी प्रकार प्रथम भी कन्या के विवाह के निमित्त भक्त लोगों ने बहुत द्रव्य दिये थे, परंतु वह सब भी साधुओं को खिलाकर आप आनंदित हुए थे। श्रीलाखाभक्तजी के ऐसे ऐसे अपार चरित्र हैं, मैंने अपनी मति के अनुसार कुछ वर्णन किये, जिन्होंने साधुचरित्र के रस का स्वाद पाया, वे भक्त यह श्रीलाखाजी की कथा सुन मानों निधि पाके जिये हैं। (१४२) श्रीनरसी मेहताजी। (५३६) छप्पय । (३०७) जगत विदित “नरसी” भगत, (जिन) “गुजर" धर पावन करी ॥ महास्मारत लोग भक्ति लौलेस न