पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७१५

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श्रीभक्तमाल सटीक। चात्तिक तिलक । श्रीभगवद्भक्त "दिवदास जी के वंश में उत्पन्न श्री “जसोधर" जी थे, उनके घर भर के जनों को अनपायनी श्रीरामभक्ति हुई, भापके पुत्र और स्त्री जन सब एकतम होकर भगवत् में परायण हुए, तन मन से श्रीहरि और हरिदास वैष्णवों की सेवा करते थे, और सबके मुखचन्द्रों से श्रीसीतारामयश रसामृत द्रवता था। एक दिवस अापके यहाँ श्रीसीतापतिजी का सुयश श्रीरामायण होता था, उसमें जो श्रीविश्वामित्रजी की यन की रक्षा हेतु प्रभु के प्रथम गवन का प्रसंग अाया, वह कविता सब जगत् जानता है, मुनि ने श्रीचक्रवर्तीजी से माँगाकि "श्रीराम लक्ष्मण दोनों पुत्र मुझे दीजिये" तब श्रीअवधेश महाराज ने दिये, आप मुनि के साथ चले । सो, श्री. जसोधरजी इस कथा को पहिले पहिल सुनते ही प्रेमावेश से उस ध्यान में तन्मय हो गये और बोले "प्राणनाथ ! मैं भी साथ ही चलँगा।" __सुनकर प्रभु ने ध्यान ही में प्रत्यक्ष सरीखा दर्शन देकर कहा कि "तुम यहाँ ही रहो, हम यज्ञ-रक्षा करके शीघ्र आते है ।" वह वियोग वचन सुन पापने पाल न्यवछावर कर दिया। इस प्रकार की संतन को अानन्द देनेवाली मधुर लीला हुई ।। (१४४) श्रीनन्ददासजी। (५६५) टीका । कवित्त । (२७८) (श्री) नन्ददासं आनन्दनिधि, रसिक सु प्रभुहित रँगमगे ॥लीला पद रस रीति ग्रंथ रचना में नागर। सरस उक्तिखत जुक्तिभक्ति रस गान उजागर ॥ प्रचुर पयध लौ सुजस “रामपुर"ग्राम निवासी। सकल सुकुल संबलित भक्त पदरेनु उपासी ॥ चन्द्रहास अग्रज । आनद- सुहृद, परम प्रेम पै मै पगे। (श्री) नंददास

  • कहते है कि "श्रीदिवदासात्मज श्रीजसोघर" जी के पुत्रजी बड़े भक्त थे, उनका नाम

श्रीअभयरामजी था । "अग्रज" पाठान्तर अगण अर्थात् पुत्र ॥